-निरंजन परिहार
कहते हैं कि दिलीप कुमार ऐसी शख्सियत थे कि एक बार उनसे जो कोई मिल लेता, वह उनका मुरीद हुए बिना नहीं रहता। परंतु सिनेमा के संसार के चमकते सितारों के बीच काफी समय से रहते हुए भी अपन दिलीप कुमार से कभी नहीं मिले। देवआनंद से अकसर अपन मिलने जाते थे, और उन्होंने कहा भी था कि मुझसे तो रोज मिलते हो और इतना प्यार भी करते हो, पर कभी दिलीप साहब से भी मिलो, तो समझ में आएगा कि मिलना क्या होता है, कोई कैसे किसी से जुड़ता है और कैसे अनजाने को भी अपना बना लेता है। मगर, इसे संयोग कहें, या समय का शिलालेख कि सिनेमाई लेखन से निकल जाने और देव साहब के संसार से चले जाने के साथ ही सिनेमा के लोगों से अपना रिश्ता भी धीरे धीरे रिसता गया। वैसे कभी कोई काम भी नहीं पड़ा दिलीप कुमार से मिलने का। बिना काम किसी से भी मिलने का अपने लिए कोई मतलब भी अपन नहीं मानते। फिर भी मिलते तो, जैसा कि सभी कहते है, शायद अपन भी उनके मुरीद हो जाते। लेकिन मिले ही नहीं तो मुरीद कैसे बनते! फिर भी दिलीप कुमार के दुनिया से विदा लेने के दिन उनकी श्रद्धांजलियों में जितना कुछ उनके बारे में पढ़ पाए, वह अपने आप में उनको जानने, समझने और मुरीद हो जाने के लिए काफी है। उनके निधन पर अमिताभ बच्चन की आकुलता, धर्मेंद्र की आंखों में छलके आंसू और सायरा बानो के पहलू में बैठे शाहरुख खान की सांत्वना से दिलीप कुमार के प्रति दुनिया के मन में बसे सम्मान समझा जा सकता है।
दिलीप कुमार नायक थे। सबके चहेते महानायक। उनके जैसा, उनसे पहले और उनके बाद हमारे सिनेमा में तो कोई जन्मा ही नहीं। हमारे देश में उनको 1991 में पद्म भूषण और 2015 में दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान पद्म विभूषण मिला, तो पाकिस्तान ने अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ से भी नवाजा। ‘क्रांति’ फिल्म में उनके साथ काम करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा इसीलिए हैरान है कि दिलीप कुमार हमारे हिंदुस्तान के सबसे महान कलाकार थे, फिर भी उनको ‘भारत रत्न’ क्यों नहीं मिला। हालांकि, भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा सम्मान ‘दादा साहेब पुरस्कार’ उन्हें मिला, क्योंकि उनके सिनेमाई अंदाज वास्तविक जीवन की सच्ची तस्वीर हुआ करते थे और संभवतया इसीलिए वे हमेशा अभिनय की मौलिकता की ओर अग्रसर होते रहे। वे जानते थे कि नकल और अनुसरण की कोई मंजिल नहीं होती। फिर भी पता नहीं क्यों हमारे सिनेमा के सैकड़ों सितारों का संसार दिलीप कुमार के अभिनय का अनुसरण करके अपनी मंजिलें तलाशने की कोशिश करता दिखता है। लेकिन इस पूरी तस्वीर की एक सच्चाई यह भी है कि दिलीप कुमार की बदौलत ही सिनेमा की दुनिया ने जाना कि एक कलाकार अपने भीतर छिपी कला को कैसे सरल, सहज और सामान्य स्वरूप में सबके सामने सादगी से प्रकट कर सकता है।
विभाजन के पहलेवाले पाकिस्तान के पेशावर में दिलीप कुमार 11 दिसंबर 1922 को जन्मे और विभाजन के वक्त परिवार के साथ हिंदुस्तान रहने आ गए। तकलीफों में बचपन गुजरा और सब्जी का ठेला लगानेवाले युसुफ खान को उतनी ही मेहनत अभिनय में करने की सलाह देविका रानी ने दी, तो एक्टर बन गए और सबसे आगे निकल गए। मुंबई के हिंदुजा हॉस्पिटल में 98 वर्ष की उम्र में वे ससार को अलविदा कह गए। यह संयोग ही था कि सन 2021 के 7वें महीने की 7 तारीख को सुबह 7 बजे के आसपास उन्होंने आखरी सांस ली। अनेक नेताओं और सैकड़ों अभिनेताओं की उपस्थिति में मुंबई के बांद्रा में रहनेवाले दिलीप कुमार को राजकीय सम्मान के साथ तिरंगे में लपेटकर अंतिम विदाई दी गई और जुहू में सुपुर्द-ए-खाक किया गया। सबने कहा कि लोग तो दुनिया में बहुत आते और जाते रहेंगे, मगर दुर्लभतम अभिनय की दास्तान भी सुलभतम स्वरूप में पेश करनेवाले दिलीप कुमार जैसा दूसरा कोई और नहीं होगा।
वैसे, हमारे हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि समस्त संसार में अक्सर यह होता आया है कि एक जीता जागता शख्स जब तक हमारे बीच में अपने जीवन के जरिए दूसरों के जीवन को संवारने का काम कर रहा होता है, तो कई सारे लोग उसके साथ जुड़कर अपने जीवन को धन्य कर रहे होते हैं। इसके उलट, सामान्य समाज के कुछ बेगैरत लोग उस शख्स की महानता में कमजोरियां तलाशकर उसके खिलाफ खड़े होकर स्वयं को बड़ा बनाने की कोशिश करते दिखते हैं। लेकिन इस सबके पार एक समाज वह भी है, तो नफरत का जाल बुनकर किसी को भी कटघरे में खड़ा करने में संतोष तलाशता है। ऐसे लोगों के लिए इंटरनेट की दया से उग आए सोशल मीडिया के अनेक प्लेटफॉर्म किसी रंगमंच से कम नहीं है। दिलीप कुमार की मौत पर भी उनके बारे में घृणाभाव का पतित सागर इंटरनेट पर उमड़ता रहा। युसुफ खान से दिलीप कुमार बनने पर उंगलिया उठीं तो हिंदू नाम की पहचान के बावजूद अंतिम संस्कार मुसलिम तरीके से होने पर भी सवाल किए गए। यहां तक कह डाला गया कि नाम चाहे कितने भी बदल ले, अंदर से वे लोग कभी नहीं बदलते। अब आप ही बताइए कि ये लोग आखिर इतना जहर लाते कहां से हैं? ईश्वर उन्हें माफ करे!
इस हालात का यह भी सच है कि जाज्वल्यमान जीवंतता को जीनेवाले कोई जीता जागता जगपुरुष जब संसार से विदा लेकर अचानक शीर्षको और समाचारों का हिस्सा हो जाता है, तब अपनी प्रसिद्धि के फेर में वे लोग भी उसके बारे में कई तरह की कहानियां कहने – गढ़ने लगते हैं, जिनसे उसका कभी कोई वास्ता तक नहीं रहा होता है। वास्ता तो दिलीप कुमार से अपना भी कभी नहीं रहा। अतः आप चाहें, तो अपने लिखे को भी उसी श्रेणी में रखते हुए आप यह कह सकते हैं कि अपन भी दिलीप कुमार के बहाने चमकने की फिराक में हैं। लेकिन दिलीप कुमार बड़े कलाकार थे, सचमुच बहुत बड़े। इतने बड़े कि लाख अभिनय करके भी उन जितना बड़ा कलाकार कोई हो ही नहीं पाया। इसीलिए, उन पर लिखने में अपन निपापद और निरासक्त नहीं रह पाए हों, तो आप क्षमा करें। लेकिन अपने शब्दों में दिलीप साहब की दास्तान का दरिया आपके दिलों में भी लहलहाता रहे, इसीलिए यह कोशिश की है। बाकी तो सब माया है, जाल है और कुल मिलाकर माजायाल है! सब कुछ यहीं छूट जाना है, जैसे आपके – हमारे बाप दादे और दिलीप कुमार छोड़ गए हैं।