निरंजन परिहार
इरफान खान चले गए। सिर्फ 54 की उम्र में। 84 साल की उनकी मां सईदा बेगम अभी चार दिन पहले ही दुनिया से विदा लेकर गईं थीं। इस हिसाब से तो बेटा तीस साल पहले ही निकल पड़ा। सुना हैं कि विधि जब हमारी जिंदगी का विधान लिख रही होती है, तो जन्म देने से पहले ही मृत्यु लेख भी लिख डालती है। इरफान की जिंदगी की किताब कम पन्नों की थी। लेकिन इस सच्चाई को उन्होंने बहुत पहले ही जान लिया था, सो इतनी सी उम्र में ही अपनी जिंदगी के पन्नों का आकार दुनिया के कई करोड़ लोगों की जिंदगी के पन्नों से भी ज्यादा बड़ा करके चले गए। सन 2018 में इरफान को जब अपने कैंसर होने का पता चला था, तो उन्होंने ट्वीट करके कहा था कि ज़िंदगी में अचानक कुछ ऐसा हो जाता है, जो आपको आगे लेकर जाता है। जिंदगी में वैसे भी तुम बहुत आगे निकल चुके थे इरफान, लेकिन इतनी सी उम्र में मौत के साथ इतने आगे निकल जाओगे, यह किसी ने नहीं सोचा था। सुना है कि इस्लाम में पुनर्जन्म का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन फिर भी, कैसे भी करके, एक जनम और लेकर जयपुर लौट आना इरफान, इसी रूप में, इसी दुनिया में।
मुंबई के कोकिलाबेन अंबानी अस्पताल से उनकी आखरी सांस की खबर भले ही 29 अप्रेल 2020 को तड़के तीन बजे आई। लेकिन उसके पहले ही रात सवा बजे के करीब इंडिया न्यूज से अभिषेक शर्मा का संदेश आया कि आपके जयपुर के इरफान खान नहीं रहे, तो सन्न रह गया। लेकिन हॉस्पिटल फोन किया, तो पता चला कि झूठ है। मगर सुबह होते होते यह सच इतिहास में दर्ज हो गया। एक मनुष्य के तौर पर इरफान चाहे कितने भी बड़े हो गए थे, लेकिन अपने जयपुर को नहीं भूले। आखरी बार जब वे मुंबई से जयपुर की उड़ान में मिले, थे अपने जयपुर को याद करते हुए कह रहे थे कि चाहे कोई कुछ भी बन जाए, पर अपना बचपन, अपना शहर, अपनी गलियां और अपने लोगों की याद तो सदा साथ रहती ही है। जयपुर में 7 जनवरी 1967 को जन्मे इरफान अपनी गुलाबी नगरी के चौगान स्टेडियम में क्रिकेट खेलने की याद करते हुए बोले – देखो, मुझे बनना तो था क्रिकेटर और बन गया एक्टर। लेकिन इरफान खान अकारण नहीं जिए। अपनी आखिरी सांस तक वे केवल ऐसी फिल्मों से जुड़े रहे, जिनका हमारे देश और समाज के चरित्र से वास्ता रहा है। और आखिरकार बहुत खामोशी के साथ इंगलिश मीडियम को उन्होंने अपनी अंतिम फिल्म घोषित कर दी। अपन पहले भी कहते थे और अब भी कहते हैं कि हमारे सिनेमा के संसार में कोई दूसरा इरफान खान फिलहाल तो दिखाई नहीं देता। क्योंकि इरफान होने का अभिनय तो किसी से भी करवा लिया जा सकता है, लेकिन ‘मकबूल’, ‘स्लमडॉग मिलेनियर’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘मदारी, ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फिल्मों में हमने इरफान के जिस अभिनय को देखा, वैसा परम तपस्वी तेवर का तत्व कोई अपने अभिनय में कहां से पैदा कर पाएगा।
पता नहीं, जीवन के इस सत्य की गहराई को इरफान ने कब जान लिया था कि अगर हम लोगों की भाषा बोलेंगे तो ही लोग हमें सुनेंगे। शायद इसीलिए उनकी हर फिल्म ने सिर्फ और सिर्फ लोगों की भाषा ही बोली। अपना मानना है कि इरफान के होठ जब चुप होते थे, तो उनकी आंखे बोलती थीं। और होठ व आंखें जब दोनों बंद होते थे, तो उनकी उपस्थिति का अहसास बहुत कुछ कहता था। मगर अब उनकी उनुपस्थिति में इस तरह के अदभुत अहसास का आनंद हम कहां से लाएंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। इरफान जानते थे कि समय अपने हिसाब से चलता है और अभिनय तो सिर्फ समय के साथ चलने का एक निराकार साधन भर है। फिर भी उस साधन की सफलता को साबित करने के लिए उन्होंने अपने अभिनय की धार को इतनी मजबूती से मांजा कि सिर्फ अपनी भावप्रणव उपस्थिति के जरिए ही वे सीधे दिलों में उतर जाने की हैसियत पा गए थे। सन 1992 में चाणक्य और द ग्रेट मराठा जैसे टीवी सीरियलों से अपने अभिनय की शुरूआत करनेवाले इरफान ने 1988 में ‘सलाम बॉम्बे’ के जरिए फिल्मों में प्रवेश करके ‘तलवार’, ‘ब्लैकमेल’, ‘हासिल’, ‘सलाम बॉम्बे’ जैसी हिंदी व अंग्रेजी की करीब 70 फिल्में बताती है कि हमारे सिनेमा के संसार में अदाकार तो बहुत हुए लेकिन इरफान जैसी अलबेली अदाओं वाला कलाकार कोई दूसरा नहीं मिलेगा।
अपनी शानदार फिल्मों में जानदार अभिनय को धारदार अभिव्यक्ति देनेवाले इरफान पूरे दो साल तक केंसर की वजह से अपनी टूटती सांसों को सम्हालकर थाम रहे। अक्टूबर 2019 में लंदन से इलाज कराके लौटने के बाद इंगलिश मीडियम पूरी की। और ऐसा भी नहीं कि यूं ही फिल्म पूरी कर दी हो, इरफान ने सचमुच अभिनय के आकाश में डुबोकर खुद को निचोड़ डाला है इस फिल्म में। गजब का काम किया उन्होंने। इरफान को सन 2018 में जब अपने कैंसर होने का पता चला था, तो उन्होंने ट्वीट करके कहा था कि ज़िंदगी में अचानक कुछ ऐसा हो जाता है, जो आपको आगे लेकर जाता है। जिंदगी में वैसे भी तुम बहुत आगे निकल चुके थे इरफान, लेकिन इतनी सी उम्र में मौत के साथ इतने आगे निकल जाओगे, यह किसी ने नहीं सोचा था!