Jagdeep Dhankhar: उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने भारतीय राजनीति में एक बड़ा तूफान खड़ा कर दिया है। उनके इस्तीफे की घोषणा 21 जुलाई 2025 को संसद के मानसून सत्र के पहले दिन की रात को अचानक हुई, जिसने सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को चौंका दिया। धनखड़ के उपराष्ट्रपति (Vice President) पद से इस्तीफे ने कई सवाल खड़े किए हैं, जिनके जवाब अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। स्वास्थ्य कारणों को आधिकारिक तौर पर वजह बताया गया है, लेकिन विपक्ष इसे सियासी दबाव के रूप में पेश कर रहा है। राजनीति के जानकार कुछ लोगों का मानना है कि केंद्र सरकार की ओर से एक ताकतवर मंत्री के फोन कॉल पर धनखड़ के साथ तीखी बहस हुई। इस कॉल में धनखड़ को उनके फैसले के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा, जिसके बाद वे आहत हुए और इस्तीफा देने का फैसला लिया। इस घटना ने धनखड़ को आहत किया, और कुछ ही घंटों बाद उन्होंने रात 9:05 बजे राष्ट्रपति को इस्तीफा भेज दिया, जिसे अगले दिन दोपहर 12:07 बजे स्वीकार कर लिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की प्रतिक्रिया की टाइमिंग और औपचारिक भाषा ने भी अटकलों को हवा दी है। बीजेपी की प्रतिक्रिया धनखड़ के इस्तीफे पर काफी हद तक संयमित और औपचारिक रही है, जिससे अटकलें और तेज हुई हैं। बीजेपी (BJP) ने इस मुद्दे को ज्यादा तूल न देने की कोशिश की है, क्योंकि धनखड़ का इस्तीफा पार्टी के लिए एक असहज स्थिति पैदा कर सकता है, खासकर जब विपक्ष इसे अपनी नैतिक जीत के रूप में पेश कर रहा है।अगले कुछ दिनों में नया उपराष्ट्रपति चुनने की प्रक्रिया और बीजेपी की रणनीति से इस रहस्य से परदा उठ सकता है।

‘दबाव में काम करने वाला ही अचानक इस्तीफा देता है’
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने इस्तीफे में स्वास्थ्य कारणों को मुख्य वजह बताया। यह सही है कि हाल के कुछ महीनों में वे हृदय संबंधी समस्याओं से जूझ रहे थे और उनका इलाज भी चल रहा था। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का कहना है कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पहले भी बीमार होते रहे हैं, उनके हार्ट के ऑपरेशन भी होते रहे हैं। गहलोत का कहना है कि धनखड़ से मेरे 50 साल से संबंध है, और में यह जानता हूं कि दबाव में काम करने वाला ही अचानक इस्तीफा देता है। गहलोत ने कहा कि धनखड़ का इस्तीफा राजस्थानवासियों के लिए बड़ा झटका है। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार मानते हैं कि स्वास्थ्य कारण केवल एक बहाना हो सकता है, क्योंकि धनखड़ राजनीतिक व मानसिक रूप से बेहत ताकतवर व्यक्ति हैं। परिहार ने कुछ दिनों तक इंतजार करने की बात करते हुए कहा कि धनखड़ के उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफे में कोई बहुत बड़ा राजनीतिक पेंच है, जिसके वास्तविक कारण आने वाले दिनों में ही सामने आ सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन सवाल करते हैं कि जिस गरिमा और उम्मीद के साथ राजस्थान के सपूत जगदीप धनकड़ को देश के उपराष्ट्रपति पद तक पहुँचाया गया था, क्या उसी गरिमा के साथ उन्हें विदा किया गया? न तो विदाई में राजकीय सम्मान दिखा, न ही उनके योगदान की कोई उल्लेखनीय चर्चा। त्रिभुवन का कहना है कि यह चुपचाप किनारे कर देने जैसा व्यवहार क्या सिर्फ एक व्यक्ति के साथ किया गया है या इसके पीछे कोई गहरी राजनीतिक सोच है? राज्यसभा सांसद नीरज डांगी ने सवाल उठाया है कि धनखड़ पूरे दिन संसद में सक्रिय थे, स्वस्था ही तो थे, फिर एक घंटे में ऐसा क्या हो गया कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। सांसद डांगी का मानना है कि हो सकता है कि इस्तीफे की पटकथा पहले से लिखी गई हो, क्योंकि यह इस्तीफा केवल सियासी दबाव का परिणाम है।

पीएम मोदी की प्रतिक्रिया में वक्त और भाषा भी सवाल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की धनखड़ के इस्तीफे पर प्रतिक्रिया में वक्त क्यों लगा और प्रतिक्रिया की भाषा पर भी सवाल उठ रहे हैं। धनखड़ के इस्तीफे के दूस,रे दिन पीएम नरेंद्र मोदी ने 22 जुलाई को अपनी पहली प्रतिक्रिया दी, वह भी बेहद नपी तुली भाषा में, केवल एक लाइन में। पीएम मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एकास पर लिखा, – श्री जगदीप धनखड़ जी को भारत के उपराष्ट्रपति सहित कई भूमिकाओं में देश की सेवा करने का अवसर मिला है। मैं उनके उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूं। यह प्रतिक्रिया बेहद संक्षिप्त और बहुत ही औपचारिक थी, जो कि पीएम मोदी के स्वभाव में आम तौर पर नहीं है। पीएम मोदी ने धनखड़ के योगदान की विस्तृत चर्चा या उनके फैसल पर भी कोई टिप्पणी नहीं थी। पीएम मोदी की प्रतिक्रिया धनखड़ के इस्तीफे की घोषणा के करीब 12 से 15 घंटे बाद आई, जो सामान्य से बहुत अधिक समय माना जा रहा है। यह देरी सवाल उठा रही है कि क्या सरकार इस इस्तीफे से असहज थी या इसे लेकर कोई आंतरिक असमंजस था। राजनीतिक विश्लेषक संदीप सोनवलकर कहते हैं कि पीएम मोदी की प्रतिक्रिया में भावनात्मक गहराई या धनखड़ के कार्यकाल की प्रशंसा के शब्दों का अभाव था, जो आमतौर पर ऐसे मौकों पर देखा जाता रहा है। यह औपचारिक बयान विपक्ष को यह कहने का मौका दे रहा है कि सरकार धनखड़ के फैसले से खुश नहीं थी। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने दावा किया कि मोदी की प्रतिक्रिया में उत्साह की कमी और इसकी टाइमिंग यह संकेत देती है कि धनखड़ का इस्तीफा सरकार के दबाव का परिणाम था। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने जानबूझकर अपनी प्रतिक्रिया को संक्षिप्त रखा हो सकता है, ताकि इस मुद्दे पर ज्यादा सियासी बहस न हो, क्योंकि धनखड़ के इस्तीफे ने पहले ही बीजेपी को असहज स्थिति में डाल दिया है।

ताकतवर मंत्री के फोन के अलावा कारण और भी संभव
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने कहा कि धनखड़ का इस्तीफा चौंकाने वाला था, क्योंकि वे पूरे दिन संसद में सक्रिय थे। उन्होंने स्वास्थ्य कारणों को स्वीकार किया लेकिन यह भी कहा कि यह फैसला अप्रत्याशित था। राजनीति के कुछ जानकारों का मानना है कि धनखड़ के इस्तीफे का एक प्रमुख कारण जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव भी हो सकता है। यह कदम केंद्र सरकार को अप्रत्याशित लगा, क्योंकि सरकार ने इस प्रस्ताव को लोकसभा में लाने की रणनीति बनाई थी और विपक्ष को भरोसे में लिया था। धनखड़ के इस फैसले से सरकार को श्रेय लेने का मौका नहीं मिला, जिससे सत्तापक्ष नाराज हो गया। कुछ सूत्रों का दावा है कि धनखड़ को उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाए जाने की धमकी भी दी गई थी, जो छह महीने पहले विपक्ष द्वारा लाया गया था, लेकिन असफल रहा था। विपक्ष का मानना है कि धनखड़ का इस्तीफा केंद्र सरकार के दबाव में लिया गया। जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव स्वीकार करना सरकार के लिए असहज था, और धनखड़ को इसके लिए सजा दी गई। गौरव गोगोई और अशोक गहलोत जैसे नेताओं ने कहा कि धनखड़ सरकार के रुख से असंतुष्ट थे और उन्हें अपमानित महसूस हुआ। गहलोत ने इसे आरएसएस और बीजेपी के बीच आंतरिक सियासत से जोड़ा। शिवसेना के संजय राउत ने इसे दिल्ली में कुछ बड़ा होने का संकेत बताया, जबकि डिंपल यादव ने कहा कि दाल में कुछ काला है। धनखड़ ने हाल के महीनों में सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका के खिलाफ तीखी टिप्पणियां की थीं, खासकर नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन के रद्द होने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधेयकों पर समयसीमा तय करने के फैसले पर। इन बयानों से सरकार असहज थी, और बीजेपी ने खुद को इनसे अलग कर लिया था।
-राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार)
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