Bihar: प्रशांत किशोर हार गए। बिहार (Bihar) जीत गया। वही वाला बिहार, पुराना, जिद्दी और अडियल। जिसे हिलाना मुश्किल और जगाना तो और भी मुश्किल। बदलना तो बिल्कुल ही असंभव। प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) बोले – बिहार बदलेंगे। बिहार बोला – बदलाव, क्यों? क्या किसी ने शिकायत की? प्रशांत बोले – उठो। बिहार बोला – क्यों? नींद अच्छी है। भूख हमारी पहचान है। बेरोज़गारी हमारी विरासत और पलायन, वह तो बिहार की संस्कृति में समाहित है। क्या जरूरी है बिहार में काम, वह तो दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और गुजरात में भी मिल जाता है। हम बिहार में सिर्फ वोट देंगे। प्रशांत बोले – तो फिर विकास। बिहार बोला – विकास तो जो है, वही कौन सा कम है। बिहार में विकास, दरअसल एक चुटकुला है। जिसे नेता चुनाव में सुनाते हैं, लोग हंसते हैं, ताली बचाते हैं, फिर वही करते हैं जो सालों से करते आए हैं।
बिहार जैसा है, वैसा ही रहने की जिद
प्रशांत किशोर सपने बेच रहे थे। बिहार नींद खरीद रहा था। प्रशांत उम्मीद दे रहे थे। बिहार इतिहास पकड़कर बैठा था। प्रशांत बोले – हम बदलेंगे, बिहार बोला— हम वैसे ही रहेंगे। क्योंकि बदलाव से डर लगता है। बदलाव में सवाल आते हैं। सवालों में जवाब चाहिए। जवाबों से नेता घबराते हैं। नेताओं की घबराहट से जनता असहज होती है। इसलिए बेहतर है – कुछ मत पूछो। चुप रहो। सहन करो, और वो ही लोगों को जिताओ, जो कहते हैं – सब ठीक है। इसीलिए बिहार जीत गया। जैसा था, वैसा ही रहने की जिद में जीत गया। अपनी दर्दनाक हालत पर कभी न बदलने की मुहर लगाकर जीत गया। अपनी तकलीफ़ को ताज बनाकर जीत गया।
बिहार को बेरोज़गारी हिला नहीं पाती
प्रशांत हार गए, बिहार की आदतें जीत गईं। आदतें मजबूत होती हैं। इतनी मजबूत कि भूख हरा नहीं पाती। बेरोज़गारी हिला नहीं पाती। पलायन पिघला नहीं पाता। बिहार कहता है – हम जैसे हैं, वैसे ही महान हैं। गड्ढे हमारी संस्कृति हैं, टूटी सड़कें हमारी विरासत मजदूर भाइयों का पलायन हमारी कमाई का आधार है, और चुनाव हमारा महोत्सव। ऐसे महोत्सवों में तर्क मर जाता है। विकास दम तोड़ देता है, और फैसला वही होता है जो सालों से होता आया है। हर बार नाराज़गी। हर बार शिकायत। हर बार दर्द। मगर, हर बार वही वोट। यह जादू नहीं, आदत है। और आदत हार जाए, ऐसा इतिहास में कभी नहीं हुआ।
बिहार तर्क पर नहीं, जाति पर चलेगा
प्रशांत किशोर अस्पताल की बात कर रहे थे। मगर, बिहार जाति की सूची पढ़ रहा था। प्रशांत नौकरियों की बात कर रहे थे। बिहार बोला – खुद की जाति देखी। प्रशांत डेटा ला रहे थे। बिहार परंपराएं चमका रहा था। बिहार तर्क पर नहीं चलता। बिहार भावनाओं पर दौड़ता है। और भावनाएं, मालूम है न? वे तथ्य नहीं देखतीं। सच कहें, तो बिहार में चुनाव नहीं होता। रीतिरिवाज़ होता है। जैसे छठ, जैसे मेले, शादी और व्रत। बस, वोट भी वही है। पांच साल रोज़गार की चिंता। पांच दिन जाति, समाज, ठसक। और फैसला? ठसक जीतती है। बिहार कहता है – हमको बदलना नहीं। क्या कमी है? अच्छे लोग बाहर हैं। बुरी हालत अंदर है। मगर, खुश दोनों हैं।
पलायन को संस्कृति माना बिहार ने
प्रशांत बोले – हमारे गांव के बच्चे बाहर कमाने क्यूं जाएं? बिहार बोला – बेटा, तू भी बाहर था, चुनाव के बाद फिर तुझे बाहर भेज देंगे। सड़कें टूटी है, बिहार है। बिजली जाती है, बिहार है। नौकरी नहीं है, बिहार है। पानी नहीं है, बिहार है। दरअसल, यही तो बिहार की पहटान है। तो फिर वोट क्यों। तो, वोट इसलिए, क्योंकि वो हमारी ताकत है, यही हमें बताया गया है, यही सिखाया गया है और किसी देना है, यह भी समझाया गया है। इसलिए, वोट तो देंगे, क्योंकि वोट बिहार से बाहर नहीं जाता। बल्कि बाहर से भी वोट यहां चुनाव में आ जाता है। यही असली पहचान है, यही असली जीत है।
बदलाव को बकवास माना बिहार ने
सही तरीके से देखें, तो प्रशांत किशोर की हार, असल में बिहार के भविष्य की हार है। लेकिन बिहार उसी को जीत मान रहा है और जीत का जश्न मना रहा है। उसे भविष्य नहीं चाहिए, उसे अतीत चाहिए। उसे परंपरा चाहिए और जाति का आधार चाहिए। दरअसल, बिहार को वही चाहिए जो उसने हमेशा चुना है – जो है, उसी का आधार, बाकी सब निराधार। बदलाव का इनकार, और इस इनकार को ही बिहार ने एक बार फिर गर्व से जीत नाम दे दिया। असल में बिहार बरसों बरस से जिस बरबादी की बिसात पर पल रहा था, उसी पर पसरे रहना चाहता है, तो प्रशांत किशोर भी करे, तो क्या करे। हर हाल में आगे न बढ़ने और वहीं पर अड़े और गड़े रहने के अड़ियलपन को आप बिहारियत कह सकते हैं। प्रशांत किशोर को हराकर, बिहारियत तो जीत गई, मगर बिहार ने बहुत कुछ खोया है। पता नहीं, बिहार, इस बात को कब समझेगा, लेकिन आप तो समझ ही रहे होंगे!
– निरंजन परिहार
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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

