Congress: देश को आजादी दिलाने तथा बरसों तक राज करने वाली कांग्रेस (Congress) में अंदरूनी हालात कोई बहुत ठीक – ठाक नहीं हैं। लगातार हार और कमजोर होते संगठन को राहुल गांधी (Rahul Gandhi) बहुत हल्के में ले रहे हैं। दिल्ली विधानसभा में करारी हार और उससे तत्काल पहले हरियाणा और महाराष्ट्र में मात खाने के बावजूद राहुल गांधी और उनकी टीम अनपेक्षित फैसले ले रही है। कमजोर लोगों को कद्दावर पद सौंपे जा रहे हैं और नतीजे देने वाले नेता संगठन में दरकिनार है। पार्टी में इस बात को लेकर चिंता बढ़ रही है कि राहुल गांधी आखिर चाहते क्या हैं। लगातार हार से पार्टी कमजोर होती जा रही है और परिणामस्वरूप नेताओं और कार्यकर्ताओं में नेतृत्व का डर कम होता जा रहा है। राहुल गांधी ने हाल ही में, कुछ ऐसे फैसले भी लिए हैं, जिससे पार्टी बड़े संकट में फंसती गई है और पार्टी के नेता और कार्यकर्ता ही अपने नेता के अगले कदम को लेकर असमंजस में हैं। राष्ट्रीय स्तर पर साथी साथ छोड़ रहे हैं और प्रदेशों में ही वे उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। इसी साल बिहार में चुनाव होने हैं और अगले साल कुछ अन्य राज्यों में भी, ऐसे में राहुल गांधी के निर्णयों से पार्टी की मौजूदा स्थिति में आने वाली चुनौतियां और भी कठिन होती जा रही हैं।

कमजोर नेताओं को कद्दावर पद
कांग्रेस में राहुल गांधी ने जो संगठनात्मक बदलाव किए हैं, लेकिन वे रणनीतिक से ज़्यादा प्रयोगात्मक लगते हैं। केसी वेणुगोपाल जैसे पार्टी में बेहद अलोकप्रिय और लगभग नाकारा समझे जाने वाले दक्षिण भारत के सांसद को महासचिव (संगठन) बनाए रखा हैं और जयराम रमेश भी अपने पद पर बने हुए हैं। महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर हर्षवर्धन सपकाल नामक एक ऐसे गुमनाम व नामालूम व्यक्ति को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया है, जिसे पार्टी में ही ज्यादातर लोग नहीं जानते। हरीश चौधरी के प्रभारी रहते हुए पंजाब में कांग्रेस की लुटिया डुब गई, उनको मध्य प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य का प्रभारी बना दिया गया है। राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील तथा कांग्रेस के लिए बेहद कमजोर प्रदेश बिहार में प्रभारी के रूप में कृष्णा अल्लावारू को प्रभारी बनाया गया है, जिनको जातिगत राजनीति, सामाजिक समीकरण तथा क्षेत्रीय संतुलन की ही समझ तक नहीं है। पंजाब में भी देवेंद्र यादव को बदलकर छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को प्रभारी बनाया गया है। इन बदलावों से यह संदेश कतई नहीं गया है कि राहुल गांधी कांग्रेस संगठन में कोई सार्थक सुधार करना चाह रहे है। राहुल ने जिन नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी है, उनमें से कई नेताओं का इतिहास विफलताओं का रहा है, जिससे पार्टी की चुनौतियां कभी कम होंगी, यह दावा नहीं किया जा सकता।

प्रदेशों में संगठन का चिंताजनक हाल
महाराष्ट्र, गोवा, बिहार, ओडीशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि में कांग्रेस की गतिविधियां बंद सी हैं और गुजरात जैसे प्रदेशों में तो कांग्रेस है भी या नहीं, कोई नहीं जानता। हाल ही में छत्तीसगढ़ में 173 नगर निकाय के चुनावों में कांग्रेस केवल 30 में ही जीत सकी, जबकि बीजेपी 126 पर जीत हासिल करके जबरदस्त ताकतवर साबित हुई है। कुल 10 नगर निगम में जहां पिछली बार कांग्रेस का मजबूत कब्जा था, वहां कांग्रेस का पूरी तरह सफाया करके बीजेपी काबिज हो गई है। सचिन पायलट वहां के प्रभारी हैं, वे मेहनती नेता हैं तथा उनको छत्तीसगढ़ के पार्टी नेताओं को एकजुट करने के लिए मेहनत करने की जरूरत है। राजस्थान की बात करें, तो वहां पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 25 में से 11 सीटें कांग्रेसकी झोली में डालकर अदभुत पराक्रम दिखाने वाले प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा को बदल कर सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की चर्चाएं फैला कर पार्टी के ही लोग कांग्रेस को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन पर कोई लगाम नहीं है। विभिन्न प्रदेशों में समय रहते हस्तक्षेप की जरूरत दिख रही है, वरना पार्टी के लिए बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। यह स्थिति कमजोर होते संगठनात्मक ढांचे के कारण पैदा हुई है, जहां नए नेता और कार्यकर्ता अनुशासन की भावना खो चुके हैं, तो बड़े नेताओं में अपने सम्मान को लेकर असुरक्षा साफ दिख रही है।

आने वाला वक्त और खराब संभव
दिल्ली में विधानसभा चुनाव आमने सामने लड़ने तथा उद्धव ठाकरे, शरद पवार तथा अखिलेश यादव द्वारा खुल कर अरविंद केजरीवाल का साथ देने तथा कांग्रेस की शर्मनाक हार के बाद, कांग्रेस के दूसरे सहयोगी भी उससे दूरी बनाते दिख रहे हैं। इंडिया गठबंधन में वैसे भी राहुल गांधी किसी को स्वीकार्य नहीं है। प्रियंका गांधी सांसद तो हैं ही, बिना किसी जिम्मेदारी के महासचिव भी बनी हुई हैं, लेकिन वह किसी भी जिम्मेदारी के बिना महासचिव क्यों है, इसका किसी को कोई मतलब समझ में नहीं आ रहा। उसी तरह से मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी के अध्यक्ष हैं, लेकिन फैसले राहुल गांधी ले रहे है। फिर, खड़गे का अध्यक्ष होने का कोई मतलब भी है, यह समझ से परे हैं। वरिष्ठ नेताओं ने राहुल गांधी के फैसलों पर चुप्पी साध रखी है। कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं प्रदेशों में भी पूरी तरह से अव्यवस्थित, असंगठित और अराजकता की शिकार दिख रही है। ऐसा साफ है कि राहुल गांधी कांग्रेस की कमजोरी की नब्ज पकड़ने में असफल साबित हो रहे हैं और अभी से लगने लगा है कि सन 2028 में भी कांग्रेस को 2014, 2019 और 2023 जैसी ही फसल फिर काटने को मजबूर होना पड़ सकता है, क्योंकि राहुल गांधी बीज भी वैसा ही बो रहे हैं। कांग्रेस अजीबोगरीब स्थिति में है, और जो हालात बन रहे हैं, उनकी वजह से आने वाले दिनों में कई तरह की नई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, यह सभी को साफ दिख रहा है। लेकिन राहुल गांधी को क्यों नहीं दिख रहा, यह सबसे बड़ा सवाल है।