-त्रिभुवन
Divya Maderna: राजस्थान की राजनीति में समय-समय पर कई चेहरे उभरते हैं, लेकिन कुछ चेहरे अपनी विशिष्ट पहचान बना लेते हैं। दिव्या मदेरणा उनमें एक हैं। मैंने वर्षों पहले कई बार ऐसे पुस्तक केंद्रों या पुस्तकों के स्टॉल्स पर उन्हें किताबें खरीदते हुए देखा था। साहित्यिक पुस्तकें और वे भी बड़ी तादाद में। ख़ासकर ऐसे समय जब उनके पिता के सरकार में कैबिनेट मंत्री थे। मेरे लिए ये अवाक् कर देने वाले सुखद दृश्य थे। उस माहौल में जब कांग्रेस के ही भीतर मदेरणा परिवार की छवि जानबूझकर वर्षों से बहुत करीने से और सोचे-समझे तरीके से ख़राब की जा रही थी, एक सत्ताधीश परिवार की लड़की का किसी साहित्यिक कोने में खड़ा होना इसके पारिवारिक वातावरण के बारे में साफ़ संकेत करता है। जिस समय राजनेताओं के बेटे क्रिकेट के लिए नैतिक मूल्यों को उथल-पुथल करके सत्ता की छीना-झपटी में लगे हों, उस समय एक राजनीतिक परिवार की लड़की का यह रास्ता बहुत अलग संकेत दे रहा था। कोई लड़की या लड़का अगर साहित्यिक किताबों ख़रीदे या वह प्राकृतिक वैभव में खो जाए है तो यह मान ही लेना चाहिए कि वह एक दुर्लभ प्रतिभा है और ऐसी प्रतिभाओं को सहेजा जाना चाहिए। फिर वे भले राजनीति में हों या पत्रकारिता में या काॅर्पारेट की वीथियों में। वे ग़ुरबत में जी हो रहे हों या धनवैभव में तैरते हों।
दिव्या कांग्रेस की एक प्रमुख नेता हैं। और आज का उनका यह ट्वीट उनके मन की उथल-पुथल को दिखाता है। ख़ासकर इस बार का विधानसभा चुनाव 2807 वोट से हरा दिए जाने के बाद एक निराशा का पैदा होना स्वाभाविक है, लेकिन वे इसमें भी एक नई दिशा की ओर बढ़ने की कोशिश कर रही हैं। उनका ट्वीट, जो छायावाद के शलाकापुरुष कवि जयशंकर प्रसाद के अनूठे खंडकाव्य “आंसू” के एक पद्य पर आधारित है, उनकी मनोभावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है:
“वेदना विकल फिर आई, मेरी चौदहो भुवन में
सुख कहीं न दिया दिखाई, विश्राम कहाँ जीवन में!”
इन पंक्तियों में छिपी वेदना केवल एक हार की नहीं, बल्कि एक सशक्त नेता के संघर्ष और समर्पण की कहानी बयां करती है।
जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी मेरे प्रारंभिक प्रिय कवियों में हैं, लेकिन मेरा एक दूसरा प्रारंभिक प्रिय साहित्यकार उनके लिए कहता है कि उनका बस चले तो वे पहली गोली से प्रसाद, पंत और महादेवी को उड़ा दें; क्योंकि वे स्वतंत्रता आंदोलन के समय देश में निराशा फैला रहे हैं। लेकिन इन पंक्तियों को उद्धृत करने वाले ट्वीट पर इतना लंबा लिखने की भी एक वजह है। देखिए, कांग्रेस की राजनीतिक कहाँ से कहाँ चली आई है। ख़राब नहीं, अच्छे अर्थों में। कहाँ तो इस पार्टी का एक मुख्यमंत्री महादेवी वर्मा के लिए कह रहा था कि वे समझ नहीं आतीं और कहां एक विधायक जयशंकर प्रसाद के काव्य को घोलकर पी रही हैं। कांग्रेस के उस दलित मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया का इतना सा कहना था कि पार्टी के सवर्ण नेता, ब्राह्मण पत्रकार-साहित्यकार उन पर बुरी तरह टूट पड़े और महादेवी वर्मा का बहाना बनाकर उनकी गद्दी छीन ली। लेकिन पहाड़िया जैसा प्रवाहमयी और त्रुटिरहित भाषण देने के मामले में कांग्रेस के नेताओं में शायद ही कोई हो।
दिव्या ने राजनीति में अपने कदम बहुत मजबूती से रखे थे, लेकिन इस बार की हार ने उन्हें एक नई चुनौती दी है। उनकी इस हार का गहरा असर उनके आत्मविश्वास और सपनों पर पड़ा है। यह पंक्तियां या पिछले दिनों जम्मू और कश्मीर में दिए गए उनके भाषणों के माध्यम से जो कुछ सामने आया है, वह बताता है कि किसी को हरवा देने से किसी सपने को नहीं मारा जा सकता। अलबत्ता, इससे उनकी अपनी पार्टी अवश्य मारी जा रही है। राजनीति में वह दल आत्महंता हो ही जाता है, जो डरपोक, कमजोर और अति सावधान राजनेताओं के हाथ में शक्ति देता है। कांग्रेस देश में इसी का अभिशाप भोग रही है।
राजस्थान की राजनीति में, जहां केंद्रीय हाईकमान के निर्णय और स्थानीय नेताओं की रणनीतियाँ कुछ दशकों से एक-दूसरे से टकराती रही हैं, दिव्या की यह अभिव्यक्ति इस बात का साफ संकेत है कि चुनौती कितनी भी बड़ी हो, उम्मीद का दीप जलाए रखना आवश्यक है। दिव्या ने इस हार को अपनी प्रेरणा बना लिया है। वे जानती हैं कि यह केवल एक चरण है और आगे बढ़ने का समय है। उनकी दृष्टि अब अपने सपनों को पूरा करने और राजस्थान के लोगों के लिए काम करने पर केंद्रित है। वे इस चुनावी पराजय को अपने अनुभवों में जोड़ते हुए, आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। उनका आशावाद उनके राजनीतिक दृष्टिकोण को एक नई दिशा में ले जाएगा, जहां वे स्थानीय मुद्दों को उठाते हुए और जनता की आवाज बनते हुए आगे बढ़ेंगी।
राजस्थान की राजनीति में दिव्या ही नहीं, उनसे पहले संयम लोढ़ा जैसे साहित्यिक अभिरुचि के कई नेता रहे हैं। संयम ने तो राजस्थान विधानसभा में अपने प्रदर्शन से ढेरों मौकों पर साबित किया है कि वैसा पैनापन कांग्रेस में कभी किसी के पास रहा ही नहीं है। संयम को उनकी इसी मेधा ने पीछे कर दिया; क्योंकि वे जिन ताकतवर नेताओं के साथ रहे, वे उन्हें अपनी बौद्धिक प्रभा से भीतर ही भीतर डराते रहे। इसलिए न एक ने मौका दिया और न ही दूसरे ने। उनसे पहले से बहुत प्रखर नेता मोहन प्रकाश रहे, जिनके पास बीएचयू का ओज और तेज था, लेकिन दलदल के पहलवानों ने इस पठारी नेता को रेगिस्तान से दूर ही रखा। कभी पूरे युवा भारत को उद्वेलित तरल तरंगें उलीचने वाले मोहन प्रकाश को जाने किस अनंत कोने में पटक दिया गया।
आजकल भले शशि थरूर लोकप्रिय हों, लेकिन कोई समय था जब मोहन प्रकाश का आभामंडल थरूर से कम तो नहीं था। उनके जाने कितने ही फोटो ज़हीन-शहीन प्रतिभाओं के पर्स की पुरानी यादों में बनारस से लेकर न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन तक आज भी आंखों की जलनिधि बनकर घूमते तैरते होंगे।
कांग्रेस के भीतर गहरे में झांकों तो लगता है कि यह कोई ऐसा मक़तल है, जहाँ प्रतिभाओं को कसाइयों से भी बुरी हृदयहीनता से लोगों ने काटा, मसला, उबाला, रांधा और पचाया है। कितने ही बेहतरीन लोग हैं, जो मुँह ढककर मन की जितनी पीड़ाएँ हैं, उन्हें लेकर हंसते-हंसते डोजियर तैयार करते रहते हैं। इन अनसुने दु:खों का नाम कभी सूरज खत्री होता है तो कभी डॉ. चंद्रशेखर बैद। डॉ. चंद्रभान जैसे असाधारण और जमीन से जुड़े नेताओं को जिस तरह सघन आम्र वृक्ष से खेजड़ी में बदलकर समिधा बनाया गया, वैसी कहानियां कांग्रेस में ही मिल सकती हैं। लेकिन दिव्या के तेवर कुछ अलग हैं।
ख़ैर, बात दिव्या मदेरणा से चली थी और जाने कहां पहुंच गई। सच तो यही है कि जैसे आंसू काव्य में ही एक जगह जयशंकर प्रसाद ने मानो कांग्रेस की ही व्यथा लिख डाली है:
मुँह सिये, झेलती अपनी, अभिशाप ताप ज्वालाएँ
देखी अतीत के युग की, चिर मौन शैल मालाएँ।
जिनपर न वनस्पति कोई, श्यामल उगने पाती है
जो जनपद परस तिरस्कृत अभिशप्त कही जाती है।
दिव्या मदेरणा के इस ट्वीट से लगता है कि कांग्रेस पार्टी की वर्तमान स्थिति भी ध्यान देने योग्य है। हाल के चुनावों में पार्टी को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और ऐसे में दिव्या और कांग्रेस की वर्तमान पीढ़ी के युवाओं की भूमिका और बढ़ जाती है। केंद्रीय हाईकमान को चाहिए कि वे युवा नेताओं को अधिक से अधिक अवसर दें, ताकि वे पार्टी को नई ऊर्जा और दृष्टिकोण से भर सकें। दिव्या जैसे नेता न केवल पार्टी के लिए लाभकारी हैं, बल्कि वे समाज में भी सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता रखते हैं।
कांग्रेस में युवा नेतृत्व उभरता है और फिर पहले एक तरफ किया जाता है और फिर मुर्झाने दिया जाता है। सचिन पायलट भी जयशंकर प्रसाद के इसी आंसू काव्य का एक हिस्सा बनकर रह जाते हैं या वे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का “कुकुरमुत्ता” बनकर कोई नई चुनौती गढ़ते हैं, यह देखने की बात है। सबका निचोड़ लेकर तुम सुख से सूखे जीवन में बरसों प्रभात हिमकन-सा आँसू इस विश्व-सदन में अब साफ कह रहा है कि कांग्रेस के भीतर भारी उथल-पुथल है। राजनीति में कोई भी हारा हुआ चेहरा हारा हुआ नहीं हुआ करता, बल्कि वह हमेशा ही नई शुरुआत का प्रतीक होता है। उनकी वेदना उन्हें मजबूत बनाती है और उनका आशावाद उन्हें नए सपनों की ओर ले जाता है। राजस्थान की राजनीति में उनकी आवाज अवश्य सुनाई देगी, जो अपने सपनों को साकार करने के लिए कदम बढ़ाएंगे। जयशंकर प्रसाद ने “आंसू” में ही एक जगह कहा है:
बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से
मणि वाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से?
(लेखक राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं वहां की राजनीति के गहन ज्ञाता हैं, उनकी ‘एक्स’ वॉल से साभार)