Haryana: विधानसभा चुनाव में जम्मू कश्मीर में भले की कांग्रेस को बढ़त मिल रही है, क्योंकि वहां पर बीजेपी का ना तो कोई खास काम कभी रहा और ना ही कोई खास उम्मीद भी थी। लेकिन हरियाणा में बीजेपी ने अपने प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस से बाजी अपने हाथ में ले ली है। नतीजे आ गए और तस्वीर साफ हो गई। माना जा रहा है कि बीजेपी के लिए नायब सिंह सैनी को सीएम बनाने का नायाब फार्मूला पूरी तरह से सफल रहा। लेकिन कांग्रेस सीएम के चेहरे में ही आपस में टकराती रही। भूपिंन्दर सिंह हुड्डा शुरू से ही मुख्यमंत्री बनने के लिए पांव पसार रहे ते। वे नहीं बनते तो बेटे दीपेंद्र हुड्डा को आगे कर रखा था और उनके विपरीत हरियाणा में 30 फीसदी दलित वोटों के सहारे कुमारी सेलजा भी मुख्यमंत्री बनने के सपने पाले हुए थीं। उधर, तीन – तीन बार विधानसभा चुनाव हारने वाले रणदूप सुरजेवाला भी कांग्रेस आलाकमान से अपने संबंधों के सहारे सीएम बनने की फिराक में रहे। ऐसे में, जब कांग्रेस कैसे जीतती।
राहुल गांधी ने हरियाणा में एकता के लिए क्या किया
हरियाणा में कांग्रेस पूरे उत्साह में थी कि दस साल बाद उसकी सत्ता में वापसी हो रही है, लेकिन इस चुनाव ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि बीजेपी से अकेले टक्कर लेना फिलहाल तो कांग्रेस के बस की बात नहीं है। इसी तरह से राहुल गांधी को भी एक बात समझनी होगी कि केवल भीड़ जुटाने और जलेबी जैसे जुमलों के सरहारे चुनाव नहीं जीते जाते। राहुल गांधी कांग्रेस के दिग्गज नेता है, उनको समझना होगा कि स्टार प्रचार होने के बावजूद पार्टी के नेताओं को एक रकरने की उनकी जो जिम्मेदारी थी, उसमें वे कहां तक खरे उतरे। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि राहुल गांधी ने केवल एक सभा में हुड्डा और सुरजेवाला के हाथ पकड़कर ऊंचे उठा दिए और दोनों के एक होने का संदेश देने की कोशिश भले ही की हो। लेकिन परिहार कहते हैं कि इससे तो साफ तौर पर लगा कि दोनों को जबरदस्ती साथ लाने की कोशिश की जा रही है। राजनीतिक विश्लेषक परिहार कहते हैं कि अच्छा होता कि राहुल गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेता होने के नाते कुछ महीनों पहले से ही हुड्डा, सेलजा और सुरजेवाला को साथ बिठाते, बात करते, चिंतन करते, वोयों का विश्लेषण करते और जीत के जजेबे के साथ काम करने के लिए तैयार करते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और केवल स्टार प्रचारक के रूप में भीड़ जुटाते रहे।
हुड्डा -सैलजा और सुरजेवाला ने किया कांग्रेस को कमजोर
जाट वोटों के सहारे नैया पार होने का सपना पाले बैठी कांग्रेस की नैया जाट बेल्ट में ही डूबी, यह भी देखने वाली बात है। माना जा रहा है कि हुड्डा -सैलजा और सुरजेवाला के बीच अदावत की वजह से कांग्रेस कमजोर पड़ गई। पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा की गिनती न केवल हरियाणा के बल्कि देश के बड़े जाट राजनेताओं में होती है। उनके सामने सीएम पद के लिए ताल ठोक रही कुनारी सैलजा हरियाणा की बड़ी दलित नेता हैं। तीसरे नंबर पर सुरजेवाला रहे जो कांग्रेसी हलकों में अपने आलाकमान से संबंधों के बल पर जब – तब मुख्यमंत्री पद को लेकर आपनी दावेदारी जताते नजर आए थे। राज्य की 90 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में उम्मीदवारोों के टिकट बंटवारे में भी इन्हीं तीनों नेताओं की चली थी और सबने अपने अपने समर्थकों को टिकट दिए और दिलवाए। लेकिन कहते हैं कि हुड्डा सबसे आगे रहे। ऐसे में सारा ओबीसी वोट बटोरने में नायब सिंह सैनी सफल रहे और दलित वोट भी कांग्रेस से छिटक कर बीजेपी के साथ खड़ा हुआ, ऐसा माना जा रहा है। हालांकि, हरियाणा में देश भर से आए कई कांग्रेस के नेता लंबे समय तक अपनी पार्टी के लिए काम करते रहे, लेकिन जीत का सेहरा बीजेपी के सर पर ही बंधा है।
कड़ी मेहनत से फिर बीजेपी को सत्ता लाने में सफल पूनिया
राजस्थान के वरिष्ठ बीजेपी नेता डॉ सतीश पूनिया हरियाणा में बीजेपी के प्रभारी थे और पूरे चुनाव में उन्होंने दिल से मेहनत की।राजस्थान बीजेपी के अध्यक्ष रहे डॉ सतीश पूनिया को बीजेपी ने हरियाणा के प्रदेश प्रभारी के रूप में काम सौंपा, तो पूनिया ने भी कड़ी मेहनत से पार्टी नेतृत्व के भरोसे को कायम रखा। राजस्थान में तीन दशक से चुनावी रणनीति को संवारने के काम के अनुभवी डॉ पूनिया आमेर से पिछला विधानसभा चुनाव भले ही हार गए थे, लेकिन पार्टी का विश्वास वे पहले ही जीत चुके थे। इसी कारण उन्हें राजस्थान में चुनाव हारने के बावजूद बीजेपी ने हलसरियाणा में प्रबारी की जिम्मेदारी सौंपी, जिसका लाभ बीडजेपी को मिला और पूनिया ने अपने सियासी अनुभव का लाभ उठाते हुए राजस्थान के बाद हरियाणा में भी पार्टी को चुनावी जीत दिला दी। दरअसल, लोकसभा चुनाव के बाद सतीश पूनिया को बीजेपी नेतृत्व ने हरियाणा में पार्टी की जीत की जिम्मेदारी इसीलिए दी थी कि उन पर भरोसा था। बीजेपी नेता डॉ पूनिया को हरियाणा में प्रभारी की यह जिम्मेदारी उस वक्त मिली जब लोकसभा चुनाव के बाद उनके पास कोई खास काम नहीं था। माना जा रहा था कि सतीश पूनिया को राज्यसभा में भेजा जा सकता है, लेकिन पार्टी ने ऐसा कुछ भी नहीं दिया। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि एक समर्पित कार्यकर्ता के रूप में काम करना डॉ पूनिया का वास्तविक राजनीतिक चरित्र है। इसी कारण राजस्थान में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले प्रदेश अध्यक्ष पद से डॉ पूनिया के हटाए जाने के बावजूद उन्होंने कड़ी मेहनत की थी। परिहार कहते हैं कि इसी वजह से राजस्थान में बीजेपी सत्ता में आने में सफल रही और उसी ट्रेक पर काम करते हुए डॉ पूनिया हरियाणा में भी बीजेपी को सत्ता में लाने में सफल रहे।
हरियाणा में जाटों को साधने में सफल रहे डॉ पूनिया
हरियाणा में जाट बीजेपी से नाराज बताए जा रहे थे, और इधर राजस्थान में सतीश पूनिया के विधानसभा चुनाव हार जाने के कारण जाटों की उनसे सहानुभूति थी। राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार हरिसिंह कहते हैं कि इसीलिए पूनिया को हरियाणा में पार्टी लोकसभा चुनाव प्रभारी बनाया था। परिणाम ठीक होने के बाद पार्टी ने विधानसभा चुनाव से पहले जाट कार्ड खेलते हुए पूनिया को हरियाणा बीजेपी का प्रभारी बनाया, जिसका नतीजा बीजेपी के लिए बेहतर रूप में सामने आया है। सतीश पूनियां के हरियाणा जाने के बाद बीजेपी के अन्य जाट नेताओं में भी उत्साह दिखाई दे रहा था। खास तौर से एपेंडिक्स का ऑपरेशन होने के बावजूद डॉ पूनिया पार्टी को जिताने में लगे रहे और नतीजे सुखद ही रहे हैं। साफ दिखाई दे रहा है कि डॉ पूनिया हरियाणा में जाटों को साधने में पूरी सरह से सफल रहे।
गहलोत व पायलट जैसे दिग्गज भी थे हरियाणा में प्रचारक
राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हरियाणा में कांग्रेस के सीनियर ऑब्जर्वर और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट स्टार प्रचारक थे। इसीलिए हरियाणा चुनाव परिणाम के रूझान पर भले ही गहलोत ने यह कह दिया हो कि शाम तक इंतजार करना चाहिए, पूरे परिणाम अभी आना बाकी है और उम्मीद है कि कांग्रेस जीतेगी। लेकिन हरियाणा में कांग्रेस को फीकी पड़ती चमक को देखते हुए बीजेपी नेता और सामान्य लोग कांग्रेस पर तंज कसते नजर आ रहे हैं। केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने अशोक गहलोत पर चुटकी लेते हुए कहा कि गहलोत ने, जो तीन दिन पहले कांग्रेस के हरियाणा में भारी बहुमत से जीतने जा रही है और यह भी कि कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है, उन बयानों के क्या हाल हैं?
-राकेश दुबे
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