Jagdeep Dhankhar: देश की राजनीति में हलचल तेज है। कारण उपराष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ (Jagdeep Dhankhar) का इस्तीफा है। इस्तीफा अचानक होना और उस पर, बीजेपी (BJP) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बेहद ठंडा प्रतिसाद राष्ट्रीय राजनीति में चर्चा का विषय बना है। धनखड़ के इस्तीफे से जाट (Jat) राजनीति में नई आहट है। राजस्थान की सियासत में जाट वोट बैंक प्रभावशाली है। बीजेपी के लिए अब जाटों को साधना और उनकी नाराजगी को कम करना एक बड़ी चुनौती है। खास तौर से राजस्थान की जाट राजनीति में इससे एक नए अध्याय की शुरुआत संभव है। बीजेपी के लिए यह एक अवसर भी है और चुनौती भी। यदि पार्टी जाट समुदाय के विश्वास को बनाए रखने और उनकी नाराजगी को दूर करने में सफल होती है, तो वह अपनी स्थिति को मजबूत कर सकती है। अन्यथा, विपक्ष इस हालात का लाभ उठाकर जाटों के जरिए राजस्थान (Rajasthan) में एक बार फिर अपनी पकड़ मजबूत कर सकता है। धनखड़ के इस्तीफे ने न केवल बीजेपी की रणनीति पर सवाल उठाए हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट किया है कि जाट समुदाय राजस्थान की सियासत में कितना महत्वपूर्ण है। धनखड़ ने भले ही अपने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए 21 जुलाई 2025 को उपराष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति के पद से अचानक इस्तीफा दे दिया हो, लेकिन असली कारण तलाशे जा रहे हैं।

राजस्थान में जाट समुदाय का राजनीतिक महत्व
राजस्थान में जाट समुदाय की आबादी लगभग 12 से 14 फीसदी है। राजस्थान की लगभग 50 से 60 विधानसभा सीटों पर जाट निर्णायक प्रभाव रखते हैं। शेखावाटी और मारवाड़ जैसे जाट बहुल क्षेत्रों में यह समुदाय राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण है। राजस्थान के शेखावाटी इलाके के झुंझुनू जिले के किठाना गांव निवासी जगदीप धनखड़ एक प्रमुख जाट नेता हैं। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि धनखड़ के उपराष्ट्रपति बनने से पहले बीजेपी ने उनके नाम को जाट समुदाय के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के लिए एक रणनीतिक कदम के रूप में इस्तेमाल किया था। सन 2022 में धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर बीजेपी ने राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटलैंड में सामाजिक और क्षेत्रीय समीकरण साधने की कोशिश की थी। परिहार कहते हैं कि धनखड़ को उपराष्ट्रपति बनाकर बीजेपी ने जाट समुदाय को यह संदेश दिया माना जा रहा था कि बीजेपी उनके हितों को महत्व देती है। धनखड़ का जाट समुदाय में प्रभाव केवल उनकी राजनीतिक उपलब्धियों तक सीमित नहीं है। वे एक अनुभवी वकील, सांसद और केंद्रीय मंत्री रहे हैं। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में उनकी छवि एक सधे हुए और संवैधानिक रूप से जागरूक नेता की रही। उन्होंने जाट समुदाय के लिए ओबीसी आरक्षण की मांग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे उनकी लोकप्रियता और बढ़ी। उनके इस्तीफे ने इस समुदाय में एक नेतृत्व शून्यता पैदा की है, जिसे भरना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा।
इस्तीफा जाट समाज के स्वाभिमान पर चोट माना जा रहा
उपराष्ट्रपति पद से धनखड़ के इस्तीफे ने राजस्थान में जाट समुदाय के बीच असंतोष और अनिश्चितता को जन्म दिया है। वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन का कहना है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर हजारों पोस्ट में जाट समुदाय के लोग धनखड़ के प्रति सहानुभूति और बीजेपी के प्रति नाराजगी व्यक्त करते दिखे। कुछ ने इसे जाट समुदाय और राजस्थान के स्वाभिमान का अपमान बताया, जबकि अन्य ने बीजेपी पर जाट विरोधी होने का आरोप लगाया। त्रिभुवन कहते हैं कि यह भावना इसलिए भी प्रबल हुई है, क्योंकि धनखड़ का इस्तीफा अप्रत्याशित था और इसके पीछे स्वास्थ्य कारण तो केवल बहाना है, मगर, असली कारण कुछ और ही है, इस तरह की अटकलों ने भी जोर पकड़ा। विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस, ने इस मौके का फायदा उठाते हुए बीजेपी पर जाट समुदाय को नजरअंदाज करने का आरोप लगाना शुरू कर दिया है। इस्तीफे में भले ही क्वास्थ्य का हवाला दिया गया है, लेकिन सामाजिक स्तर पर भी धनखड़ के इस्तीफे को जाट समाज के अपमान के तौर पर देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक पीएन राय कहते हैं कि जगदीप धनकड़ भारतीय इतिहास के सबसे मजबूत उपराष्ट्रपति के रूप में याद किए जाएंगे।

राजस्थान में जाट नेताओं को साधना सबसे बड़ी चुनौती
बीजेपी के लिए धनखड़ के इस्तीफे से उत्पन्न स्थिति कई मायनों में चुनौतीपूर्ण है। पहली चुनौती है जाट समुदाय में विश्वास बहाली। राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार हरिसिंह राजपुरोहित कहते हैं कि धनखड़ के बाद बीजेपी के पास ऐसा कोई बड़ा जाट चेहरा नहीं है जो राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर समुदाय को एकजुट कर सके। राजनीतिक विश्लेषक संदीप सोनवलकर मानते हैं कि राजस्थान के दिग्गज जाट नेता डॉ सतीश पूनिया को राजस्थान में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले हटा दिए जाने की नाराजगी को बावजूद जाटों ने बीजेपी का पूरा साथ दिया और सत्ता सौंपी, लेकिन बाद में भी पूनिया का राजनीतिक पुनर्वास न करने से गुस्साए जाटों ने लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 11 लोकसभा क्षेत्रों में हरा दिया। हालांकि, डॉ पूनिया ने हरियाणा में प्रभारी के रूप में जबरदस्त मेहनत की और विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सरकार बनाने के मुकाम तक पहुंचाया। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि ड़ पूनिया और धनखड़ के अलावा, बीजेपी युवाओं में जबरदस्त लोकप्रिय नागौर के सांसद हनुमान बेनीवाल की राजनीति को समझने में भी चूक कर रही है। परिहार कहते हैं कि राजस्थान सरकार और बीजेपी अब जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के बाद जाट समाज की नाराजगी झेलने को कितनी तैयार है, इसके आंकलन का निष्कर्ष जो भी आए, लेकिन जाटों को साधना आसान नहीं लगता। सोशल मीडिया पर सक्रिय राजेंदेर बिडियसर कहते हैं कि प्रदेश की वर्तमान भजनलाल शर्मा सरकार में जाट नेताओं की भागीदारी बेहद कमजोर है, और इनमें से कोई भी नेता पूरे प्रदेश में निर्णायक प्रभाव नहीं रखता। यह कमी आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बीजेपी के लिए नुकसानदायक हो सकती है।
बीजेपी को सबसे पहले जाट हितों को सम्हालना होगा
बीजेपी के सामने अब दो रास्ते हैं, या तो वह जाट समुदाय को संगठन और सरकार में अधिक भागीदारी देकर संतुष्ट करे, या फिर विपक्ष की ‘जाट-मोर्चा’ रणनीति का सामना करने के लिए तैयार रहे। पार्टी जाट समुदाय के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के लिए नए नेताओं को आगे ला सकती है या धनखड़ को किसी अन्य महत्वपूर्ण भूमिका में नियुक्त कर सकती है। इसके अलावा, बीजेपी को जाट समुदाय के बीच सामाजिक और आर्थिक मुद्दों, जैसे कि किसान कल्याण और ओबीसी आरक्षण, पर अधिक ध्यान देना होगा। क्योंकि, राजस्थान में जाट समाज और बीजेपी के बीच खाई और बढ़ती जा रही है। बीजेपी के लिए एक और चुनौती है विपक्ष के हमलों का सामना करना। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल धनखड़ के इस्तीफे को बीजेपी की कमजोरी के रूप में पेश कर रहे हैं। विपक्ष ने पहले भले ही धनखड़ पर पक्षपात का आरोप लगाया था और उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी। लेकिन अब विपक्ष इस इस्तीफे पर सरकार पर हमलावर हैं, जिससे बीजेपी की छवि को नुकसान पहुंच सकता है। जाट समुदाय की नाराजगी का मुख्य कारण यह है कि उन्हें लगता है कि बीजेपी ने उनके नेताओं की अनदेखी की है और उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया। जगदीप धनखड़ के इस्तीफे ने इस मुद्दे को और भी तेज कर दिया है। इस स्थिति में बीजेपी के लिए जाट समुदाय की नाराजगी को दूर करना एक बड़ी चुनौती होगी। उन्हें जाट नेताओं को उचित प्रतिनिधित्व देना होगा और उनकी मांगों को पूरा करना होगा ताकि जाट समुदाय की नाराजगी को दूर किया जा सके।
-राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार)
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