Rajasthan: विधानसभा उपचुनाव में हार के बाद, बीजेपी एक बार फिर अपनी राजनीतिक जमीन पर बेहद सधे कदमों के साथ आगे बढ़ रही है। प्रदेश भर में संगठन से लेकर नेतृत्व तक, हर स्तर पर बीजेपी ने पिछले विधानसभा चुनावों की गलतियों से सबक लेकर अधिक सुविचारित रणनीति बनाई है, लेकिन उपचुनाव में हार के बाद नए कदम बढ़ा रही है। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के सौम्य, सरल व गैर राजनीतिक चेहरे को लेकर भले पार्टी चुप्पी साधे हुए है, पर अंदरखाने योजना साफ है कि जनता के बीच ‘केंद्रीय नेतृत्व की विश्वसनीयता’ को चुनावी जीत का मुख्य हथियार बनाना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्रियों के लगातार राजस्थान दौरों ने कार्यकर्ताओं में उत्साह भरा है। बीजेपी अब केवल सत्ता में वापसी नहीं, बल्कि स्थायी जनाधार मजबूत करने की रणनीति पर काम कर रही है। बूथ से लेकर सोशल मीडिया तक, संगठन को माइक्रो लेवल पर सक्रिय किया गया है। लेकिन कांग्रेस अगर रणनीतिक तरीके से, राजस्थान में अपने विराट कद के नेता अशोक गहलोत को अभी से चेहरे के रूप में पेश करे, तो प्रदेश की जनता सत्ता की बाजी पलटने में कांग्रेस का साथ दे सकती है।

कांग्रेस की गुटबाजी और निर्णयहीनता का संकट
कांग्रेस फिलहाल आत्ममंथन में उलझी हुई दिखाई देती है। भले ही विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस के प्रमोद जैन भाया ने बीजेपी को हराकर सकते में डाल दिया हो, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव सचिन पायलट के बीच बीते 7 बरस से लगातार चल रही की खींचतान कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुकी है। इस बीच, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद डोटासरा की महत्वाकांक्षाएं भी उछाल मारने लगी है। सभी जानते हैं कि गहलोत सरकार के कार्यकाल में उपलब्धियां कम नहीं रहीं। उनके तीसरे मुख्यमंत्री काल में सामाजिक योजनाएं, चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में कई खास पहल हुईं, परन्तु संगठनात्मक असहमति ने उन उपलब्धियों को जनता तक ठीक तरह से पहुंचने नहीं दिया। इसी कारण फिर से सत्ता में लौटने के गहलोत के नरेटिव के सेट होने के बावजूद कांग्रेस को हार का मुंह भी देखना पड़ा। अब जब नए जिलाध्यक्षों की नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है, तो वहां भी खेमेबाजी स्पष्ट दिखाई दे रही है। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि प्रदेश में नए जिलाध्यक्ष बनने वाले चेहरे परेशान हैं कि सूची कब जारी होगी। उनका कहना है कि जिले 50 हैं और 3000 लोग दावेदार हैं, तो जिलाध्यक्ष नियुक्ति के बाद कांग्रेस नेतृत्व को प्रदेश में 2050 लोगों का विरोध सहना होगा, जो किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। परिहार कहते हैं कि नेतृत्व की दोहरी आवाज़ कार्यकर्ताओं को भ्रमित कर रही है। यही वजह है कि कांग्रेस अपने ही निर्णयों को लेकर अनिश्चित है, जबकि जनता अब स्पष्ट और निर्णायक नेतृत्व चाहती है।
बीजेपी की ‘मैदान पर वापसी’ की योजना
बीजेपी ने राजस्थान में अपने मिशन 2028 की नींव अभी से रख दी है। बीजेपी को सत्ता में आए अभी दो साल पूरे होने को है लेकिन आगामी चुनाव से 3 साल पहले से ही बीजेपी में संगठन के स्तर पर पुराने कार्यकर्ताओं को फिर से सक्रिय किया जा रहा है। केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश से चलाए गए हर जिले में ‘कमल मित्र’ अभियान के तहत पार्टी घर-घर जाकर फीडबैक जुटा रही है। यह रणनीति दोहरे उद्देश्य से जुड़ी है। एक तरफ बीजेपी अपने जनसंपर्क को मजबूत कर रही है और दूसरी तरफ कांग्रेस शासन की कमजोरियों को भी उभार रही है। राजस्थान की राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार हरिसिंह राजपुरोहित कहते हैं कि बीजेपी ने यह समझ लिया है कि राजस्थान में सत्ता परिवर्तन की लहर केवल प्रचार से नहीं, बल्कि जमीनी संपर्क से बनती है। यही कारण है कि पार्टी इस बार किसी एक चेहरे पर निर्भर नहीं, बल्कि टीम भावना पर जोर दे रही है। पुरोहित कहते हैं कि चुनाव से 3 साल पहले से ही चुनाव के लिए सक्रिय हो जाना भले ही किसी को बीजेपी का उतावलापन लगे, लेकिन रणनीतिक तरीके से आगे बढ़ना ही बीजेपी की तासीर है। उनका कहना है कि पार्टी अपने प्रदेश अध्यक्ष मदन राठोड़ के नेतृत्व में सफलता से आगे बढ़ रही है। राजपुरोहित मानते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष राठोड़ का लो-प्रोफाइल होना ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है।

कांग्रेस की चुनौती – जनता का विश्वास कैसे लौटे?
राजस्थान कांग्रेस के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती जनता का विश्वास दोबारा जीतने की है। दो साल पहले तक अशोक गहलोते के नेतृत्व वाली सरकार के होने के बावजूद, कांग्रेस अपनी आपसी खींचतान के कारण तभी से जनता के बीच अपना ‘कनेक्ट’ खोती जा रही थी। अगली बार मुख्यमंत्री बनने का सपना पालने वाले सचिन पायलट खुद को किसान नेता तो कहते हैं लेकिन किसानों से उनका कोई सीधा वास्ता अब तक तो नहीं दिखा। पायलट युवा है, लेकिन बेरोजगारों के मुद्दों पर और युवा वर्ग के मामलों अब तक वे कांग्रेस की बात तक ढंग से नहीं रख पाए हैं। राजनीतिक जानकार अशोक भाटी कहते हैं कि पायलट केवल एक खास वर्ग तक सिमट कर रह गए हैं। जबकि संगठनात्मक स्तर पर उनकी ताकत बढ़ नहीं पा रही है। भाटी कहते हैं कि पायलट गुट का यह प्रचार कि यदि पार्टी में युवाओं को ज्यादा जगह मिले, तो जनभावना बदलेगी, सही हो सकता है, लेकिन राजस्थान की जनता अभी पायलट के साथ जाने को तैयार नहीं है, यही पायलट की सबसे बड़ी मुश्किल है। कांग्रेस नेतृत्व अभी भी, अपने नेताओं के परस्पर मतभेद अभी भी सुलझा नहीं पाया है। यदि कांग्रेस अपने आंतरिक संकट को जल्दी नहीं संभालती, तो बीजेपी सरकार से निराशा और जनता की नाराज़गी भी अंततः बीजेपी के पक्ष में ही जाती दिखेगी।
आने वाले महीनों की राजनीतिक तस्वीर
राजस्थान की राजनीति अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है। बीजेपी अपने रणनीतिक आत्मविश्वास में है, जबकि कांग्रेस आत्ममंथन के दौर से गुजर रही है। बीजेपी के पास नरेंद्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेता और अमित शाह जैसे संगठनात्मक रणनीतिकार नेता है। उनके मुकाबले कांग्रेस में देखें, तो राहुल गांधी को अभी अपना कद और बड़ा बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी। वरिष्ठ पत्रकार संदीप सोनवलकर मानते हैं कि अगले कुछ महीनों में यदि कांग्रेस अपने संगठन को एकजुट कर पाए, और अशोक गहलोत जैसे दिग्गज नेता के लगातार बढ़ते कद को समझने के साथ ही सचिन पायलट को स्पष्ट रणनीतिक ताकत न दे, तो वह मुकाबले में कमजोर साबित रह सकती है। सोनवलकर कहते हैं कि कांग्रेस में अगर गुटबाजी की दरार थोड़ी सी भी और बढ़ी, तो बीजेपी को अगली बार भी राजस्थान में, सत्ता का स्पष्ट रास्ता मिल सकता है। राजस्थान में हर चुनाव ‘सत्ता परिवर्तन’ की परंपरा से जुड़ा रहा है, मगर चुनाव के 3 साल पहले से ही बीजेपी का कमर कस लेना यह साबित करता है कि अगली बार भी माहौल पिछली बार जैसा ही बीजेपी के पत्र में रह सकता है। बीजेपी में भजनलाल शर्मा के मुख्यमंत्री रहते राजस्थान के ज्यादातर लोग मानते हैं कि यदि कांग्रेस ने एक चेहरा और एक आवाज में जनता के सामने अपनी बात नहीं रखी, तो 2028 की रणनीति बीजेपी के हाथ से चली जाएगी, यह तय है।
– राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार)
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