निरंजन परिहार
जो किसी की समझ में ही नहीं आती, उस जीडीपी का क्या होगा, अर्थव्यवस्था का कितना कबाड़ा हुआ और इसका और किस – किस सेक्टर में किसको कितना नुकसान हुआ, इसका आंकलन करने के लिए तो हमारे हिंदुस्तान में कई – कई संस्थान और अनगिनत चिंतक – बुद्दिजीवी और जानकार लोग है, जो यह बताते रहेंगे कि किस तरह से क्या व कैसे करने से सब कुछ ठीक हो सकता है और देश के आर्थिक हालात को फिर से पटरी पर कैसे लाया जा सकता है। लेकिन कोरोना ने किस तरह से मीडिया का मृत्युलेख लिखा है, कैसे मीडिया को बहुत गहरे तक बरबाद कर दिया है, लॉकडाउन में लील लिए गए मीडियाकर्मियों के परिवारों की हालत किस तरह से लगातार दुर्गति की तरफ धसकती जा रही है, और जो कोरोनाकाल में भी काम करने के लिए जिंदा बचे रहे हैं, उनकी कम होती गई कमाई कैसे फिर से आगे बढ़ेगी, इस पर कौन चिंतन करेगा। मीडिया के सामने यह सबसे बड़ा सवाल है।
वैसे तो हमारे देश में किसी बहुत बड़े उद्योग, विशाल फैक्टरी और अनंत विस्तार तक पसरे प्लांट को ही इंडस्ट्री कहने का रिवाज और परंपरा दोनों है। लेकिन बीते करीब दो दशकों में, जबसे सिनेमा जैसे नाटक कला के क्षेत्र ने भी स्वयं को इंडस्ट्री कहलाने का स्वांग रचा है। तभी से मीडिया को भी खुद को इंडस्ट्री के रूप में स्थापित करने का गजब शौक चर्राया है। सो मान लिया की हम भी इंडस्ट्री यानी फैक्टरी अर्थात उद्योग हैं – मीडिया इंडस्ट्री। कहने और सुनने में कितना अच्छा लगता है न… मीडिया इंडस्ट्री! एक कमरे में रेडियो स्टेशन चलाएंगे, डेढ़ कमरे में टीवी चैनल खड़ा करेंगे और जुगाड़ करके अखबार छपवाएंगे, लेकिन फिर भी खुद को इंडस्ट्री कहलवाकर हम मन ही मन खुश हैं। उधार का सिंदूर सजाकर सुहागन बनने का स्वांग रचाने का यह बेईमान शौक मीडिया में जबरदस्त चल पड़ा है। लेकिन कोरोना ने यह खुशी भी छीन ली है। मीडिया इंडस्ट्री की कमर टूट रही है। छोटे तो वैसे भी अखंड सौभाग्यवती की तरह अखंड संकट में रहने के लिए ही जन्मे होते हैं, लेकिन करोडों की लागत से खड़े बड़े – बड़े मीडिया हाउस भी लगातार खड्डे में उतरते जा रहे हैं। लागत के मुकाबले कमाई में लगातार अंतर बढ़ता जा रहा है। आनेवाले लंबे कालखंड में भी इसे कैसे पाटा जा सकेगा, इसकी कोई आस नहीं दिख रही। क्योंकि कोरोना ने बहुत कुछ ऐसा कर डाला है कि मीडिया इंडस्ट्री का अपने नुकसान को पाटकर फिर से खुशनुमा चेहरे के साथ खड़ा होना, निकट भविष्य में तो असंभव ही लग रहा है।
मीडिया की अंदरूनी अर्थव्यवस्था का आंकलन करें, तो यह कहने भर को इंडस्ट्री है, लेकिन शाश्वत रूप से दूसरी इंडस्ट्री पर ही निर्भर है। केवल दूसरों के दिए विज्ञापनों का सहारा। किसी भी न्यूज चैनल, अखबार, न्यूज पोर्टल और न्यूजएप्प को मिलनेवाले विज्ञापनों की आय ही उनकी लागत और लगातार होनेवाले खर्च के समायोजन का मूल आधार है। लेकिन कोरोनाकाल में अखबारों के पन्ने विज्ञापनों से खाली हो गए, न्यूज चैनलों से भी विज्ञापन फुर्र होने लगे और पोर्टल तो जैसे पस्त ही हो गए। लॉकडाउन के बंद माहौल में न किसी के उत्पाद बिके, न कहीं से पैसा आया और न उधार की वसूली हुई। हर तरफ जब सब कुछ बंद – बंद ही रहा, तो कौन किसको काहे का विज्ञापन दे, और दे भी दे तो उसका पैसा कहां से दे। कोरोनाकाल संकटकाल बनकर आया, तो बड़े बड़े उद्योगों की उम्मीद अस्ताचल की ओर बढ़ गई, दुनिया भर की अर्थव्यवस्था हांफती दिखी और सैकड़ों करोड़ का धंधा करनेवालों की धमक भी धराशाई हो गई, तो विज्ञापन देकर विकसित व्यापार को विस्तार देने की परंपरा भी पस्त होती चली गई। कहावत हैं कि कुएं में होगा, तभी क्यारी तक पहुंचेगा। लेकिन, जब कुआं ही खाली है, तो क्यारी तक पानी क्या खाक पहुंचेगा! बिन पानी के खेत की फसल तो मर ही जानी है। मीडिया भी इसीलिए मरता जा रहा है।
बड़े – बड़े अखबार बंद हो रहे हैं और न्यूज चैनल चरमरा रहे हैं। न तनख्वाह चुकाने को पैसा है और न ही संचालन के लिए पूंजी बची है। छोटे तो वैसे भी बरबादी की कगार पर हैं, लेकिन बड़े – बड़ों की हालत खराब है और मझोलों को आर्थिक मजबूरी ने समझदार बनाया, तो कईयों ने अपने प्रकाशन व प्रसारण बंद कर दिए। मुंबई में ही देख लीजिए, 28 साल से लगातार निकलनेवाला द एशियन एज, 15 साल से प्रकाशित होता डीएनए, 35 साल तक अटल खड़ा रहा द आफ्टरनून डिस्पैच एंड कुरियर, गुजरात का सबसे बड़ा अखबार संदेश और राजस्थान का सर्वाधिक कमाई करनेवाला सर्वोच्च अखबार राजस्थान पत्रिका अपने संस्करण बंद करने को मजबूर हुए, तो 40 पेज का टाइम्स ऑफ इंडिया, 60 पेज का मिड डे और 48 पेज का मुंबई मिरर 16 पन्नों पर सिमटने को मजबूर हैं। कई बड़े अंग्रेजी अखबारों के कई परिशिष्ट भी सदा के लिए बंद हो गए हैं। नवभारत टाइम्स जैसे त्यौहारों पर विज्ञापनों से गले तक भरे रहनेवाले अखबार में भी कभी कभार को छोड़कर उनके अपने संस्थान के विज्ञापन ही दिखते हैं। हिंदी के कई दैनिक अखबार भी प्रिंट बंद करके कहते भले ही डिजीटल हो गए हैं, लेकिन न वेबसाइट है और न पोर्टल, वे दिखते केवल वॉट्सएप्प पर ही हैं।
कोरोनाकाल में कमाई बंद हो गई, तो उसके फिर से शुरू होने का मुहूर्त अभी निकला नहीं है। लेकिन मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। अखबारों के पाठकों तक पहुंचने में और न्यूज चैनलों के घरों तक दिखने में जो ऑपरेशनल कॉस्ट लगती है, वह भी इन दिनों नहीं निकल रही है। जो जानते हैं, वे मानते हैं कि समाचार माध्यमों के चलते रहने में, रोज के खर्चे बहुत ज्यादा होते हैं, सो कहा जा सकता है कि मीडिया अपने ही बोझ से मरता जा रहा है। क्या करें, कहीं कोई रास्ता खुलता नहीं दिख रहा। हालात निराशाजनक है और कोरोना संकटकाल लगातार लंबा होता जा रहा है। कोरोनाकाल में कमाई के अभाव में देश के लाखों मीडियाकर्मियों व उनके परिवारों के पेट में बल पड़ रहे हैं। अर्थशास्त्री और नीतिनियंता किस्म के लोग भले ही दिल बहलाने के लिए कह रहे हैं कि दुनिया भर में आर्थिक हालात एक जैसे खराब हैं। कहना बहुत आसान है, सो उनका कहा उनको मुबारक। मगर, आग भले ही पूरे गांव में लगी हो, हमें तो अपने घर के जलने की चिंता होती है। क्योंकि सवाल पेट की आग का है और सवाल यह भी है कि… ये आग कब बुझेगी?