लोग मृत्यु के बाद कुंभ अर्थात कलश में समाकर अस्थियों के रूप में हरिद्वार पहुंचते हैं, लेकिन श्रवणजी तो जीते जी सशरीर कुंभ मेले में शामिल होने गए थे। वे धार्मिक थे और इसीलिए शायद उन्हें पता था कि समय आ गया है। कर्णप्रिय संगीत के सरताज श्रवण राठौड़ संसार को संगीत से सजाकर ईश्वर की गोद में समा गए।
निरंजन परिहार
साधना अनंतकाल के लिए अजर, अमर और अविनाशी होती है, कभी समाप्त नहीं होती। इसलिए अंतिम सांस तक संगीत की साधना करनेवाले संगीतकार श्रवण राठौड़ के शरीर ने भले ही संसार से विदा ले ली हो, पर उनका संगीत सदा रहेगा। साज ठहर गए हैं, लेकिन स्वर लहरियां लहराती रहेंगी । श्रवणजी जानते थे कि संगीत की अपनी कोई भाषा नही होती, और न ही उसका कोई निजी अर्थशास्त्र। वे जानते थे कि सुर सांसों से संवरते हैं, धुनों में धमकते हैं और कर्णप्रियता की कसौटी पर स्वयं को कसते हुए सीधे दिलों में जा बसते हैं। इसीलिए दिलों में धड़काती धुनों के धनी श्रवण राठौड़, सुरों से नाता तोड़कर कैसे कहीं जा सकते हैं! हमने तो हर बार श्रवणजी को साकार स्वरूप में सुरों से सजे देखा है। सो, भले ही उनके शरीर ने 22 अप्रैल 2021 की रात 9.30 बजे के आसपास आखरी सांस ले ली, लेकिन हमारी धमनियों और धड़कनों में वे सदा धमकते रहेंगे।
संसार में बहुत कम लोग होते हैं, जो असंभव परिस्थितियों में भी उम्मीदों का आंचल नहीं छोड़ते। श्रवणजी इसी तासीर के थे, जो रणभूमि में टूटती तलवारों की टंकार में से भी अपने हिस्से की स्वर लहरियां सहेज लाने का मद्दा रखते थे। लेकिन उनके संकटों और कंटकों का निबटारा भी शायद इसी दुनिया में लिखा था। इसीलिए, संसार के किसी भी मनुष्य के जीवन को यश और कलंक का जो मिला जुला हिस्सा मिलना होता है, वह श्रवणजी की झोली में भी एक साथ आया। यश की उन्हें प्राप्ति हुई उनवके संगीत से, तो अल्पकालीन अपकीर्ति मिली अपने साथी नदीम की करतूत से। गुलशन कुमार की हत्या के बाद से ही नदीम तो खैर निर्वासित जीवन बिताता हुआ लंदन में अपने कर्मों का फल भोग रहा है। लेकिन भले, भोले और भलमनसाहत से भरे निरपराध श्रवणजी ने नदीम के बिना भी जीना सीख लिया था। प्रसंगवश, 1981 में आई ‘मैने जीना सीख लिया’ बतौर संगीतकार नदीम-श्रवण की पहली हिंदी फिल्म थी।
श्रवण राठौड़ का जन्म 1954 में हुआ, लेकिन पुनर्जन्म हुआ 1990 में, जब अपनी धमाकेदार फिल्म ‘आशिकी’ के संगीत के जरिए उन्होंने सफलता का एक विशाल निजी आकाश रचा। अपने इस आकाश के सितारे भी वे ही थे, चंदा भी वे ही, चांदनी भी, सूरज भी और इन सबका उजाला भी वे ही थे। सन 1975 में आई भोजपुरी की ‘दंगल’ नदीम श्रवण की जोड़ी पहली फिल्म थी। बाद में दोनों ने ‘आशिकी’, ‘साजन’, ‘सड़क’, ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘साथी’, ‘दीवाना’, ‘फूल और कांटे’, ‘हम हैं राही प्यार के’, ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘जान तेरे नाम’ ‘रंग’, ‘राजा’, ‘धड़कन’, ‘परदेस’, ‘दिलवाले’, ‘राज’, ‘अंदाज’, ‘बरसात’, ‘सिर्फ तुम’, ‘कसूर’, ‘बेवफा’ जैसी ना जाने कितनी ही फिल्मों को अपने कर्णप्रिय संगीत से कामयाबी का ताज पहनाया और अपने दौर के सबसे महंगे संगीतकार बन गए थे। इसे आप विधि की विडंबना कह सकते हैं कि नदीम के कभी माफ न किए जानेवाले विश्वासघात की वजह से उनके सजे सजाए साज रूठ गए। वरना उन्होंने तो अपने संगीत का सारा सागर ही खोल दिया था, पर काल की क्रूरता का कथानक ही ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण था कि बेचारा सिनेमा ही श्रवणजी के संगीत को अपनी अंजुरी में ठीक से सहेज नहीं सका।
श्रवण राठौड़ के पिता पंडित चतुर्भुज राठौड़ राजस्थान के छोटे से जिले सिरोही के बहुत छोटे से गांव रोहुआ से निकलकर जामनगर आदित्य घराने के संगीतज्ञ के रूप में विराट व्यक्तित्व बन गए थे। श्रवणजी ने उन्हीं से अपने भाई रूप कुमार राठौड़ व विनोद राठोड़ के साथ संगीत की शिक्षा ली। वे निष्कपट थे, निष्पाप थे और बहुत हद तक निरापद भी। इसीलिए सुरों को सजाने के सबसे मुश्किल दौर में भी वे बहुत तेजी से सफलता के शिखर पर पहुंच गए थे। लिखनेवाले लिख रहे हैं कि 66 वर्ष के श्रवण राठौड़ अपने पीछे पत्नी विमला एवं दो बेटों संजीव और दर्शन को छोड़ गए हैं। लेकिन असल में श्रवण जी हम सबको जो संगीत दे गए हैं, वह हमारे सुरों में सदा सजता रहेगा, इस संसार के रहने तक अमर रहेगा।
दरअसल, मन की वेदना जब विदीर्ण होने लगती है, तो वह विशेषण या परिभाषा में तब्दील हो जाती है। इसीलिए अब, जब घूंघट की आड़ से दिलबर का दीदार अधूरा रहेगा, जब किसी दूल्हे का सेहरा सुहाना लगेगा और लोग सोचेंगे तुम्हें प्यार करें के नहीं, तो श्रवणजी याद आएंगे। जब चने के खेत में जोरा जोरी होगी, कोई कहेगा कि चेहरा क्या देखते दो दिल में उतरकर देखो ना, और किसी की पायलियां गीत सुनाएगी, सरगम गाएगी, तो श्रवणजी परदेसी परदेसी जाना नहीं की विरह वेदना में आंसू बनकर छलकेंगे। जब कोई नजर के सामने और जिगर के पास रहेगा, या कोई दुनिया भुला देगा किसी की चाहत में, तो श्रवणजी याद आएंगे। लोग यूं ही कहते हैं कि वे संसार से चले गए! देखिए तो सही, वे जिंदा तो है संगीत में, धुनों में, दिलों में, दिमाग में और हमारी जुबां पर भी! दरअसल, श्रवण राठौड़ कभी नहीं मरते, वे अमर हैं, हमारे दिलों की धमनियों में, जब तक हम जिंदा हैं, धड़कते रहेंगे संगीत की स्वर लहरियों में!