निरंजन परिहार
ऋषि कपूर इस दुनिया से इतने चुपचाप चले जानेवाले मनुष्य नहीं थे। काल अगर कोरोना के संक्रमण का नहीं होता, और दिन अगर लॉकडाउन के सूनेपन से भरे नहीं होते, तो जमाना सड़कों पर सितारों का सैलाब देखता। महकते फूलों की बहार बिखरते देखता। और उड़ते गुलाल की रंगीनिया देखता। यही नहीं, जमाना वो लहलहाता जनसैलाब भी देखता, जो सितारों के इस लोक से परलोक सिधारने के समय सड़कों पर सैलाब सा उमड़ पड़ता है। जब तक कोई इस दुनिया में हम सबके बीच होता है और मनुष्य होने के बावजूद महान होने की सीमाओं के पार नहीं चला जाता, तब तक हमारे लिए यह आभास कर पाना भी लगभग असंभव होता है कि उसके होने के अस्तित्व का अर्थ दुनिया के लिए क्या है। लेकिन ऋषि कपूर तो जीते जी किसी किवदंती सा स्वरूप धर चुके थे। सो, मौत के बाद भी मुहावरों की तरह हमारी जिंदगी में जिंदा रहेंगे।
जिंदगी में ज्यादातर लोगों की उम्मीदें बड़ी भले ही होती हैं, पर खुद उन्हें अंदाजा नही होता कि आखिर उनकी मंजिल कहां है, और नैया किस घाट जाकर लगेगी। लेकिन ऋषि कपूर तो अपनी पहली फिल्म ‘बॉबी” से ही सितारे का स्वरूप मिल गया था, सो, उन्हें अपनी उम्मीदों का तो अंदाजा था ही, मंजिल का भी पता था। इसीलिए न केवल हीरो थे, बल्कि ग्लैमर से भरपूर रोमांस के बादशाह भी थे। उनकी फिल्मों की सूची बहुत लंबी है, लेकिन सभी को केवल इतना कहकर समेटा जा सकता है, कि उन्होंने जिस भी फिल्म में जो भी किरदार निभाया, उसे इतनी गहराई से जीया कि वह छवि सीधे दर्शकों के दिल में जाकर गहरे बस गई। ‘चांदनी’ के चुलबुले रोहित और ‘हिना’ के स्नेहिल चंदर प्रकाश और ‘दीवाना’ को रवि को कोई भूल थोड़े ही सकता है।
अब तो खैर, हमारे सिनेमा के संसार में छवि निर्माणकर्ताओं की एक बहुत बड़ी प्रबंधकीय फौज है, जो मोटी फीस के बदले किसी अल्लू पल्लू के लिए भी अक्सर बहुत कुछ ऐसा कुछ रच देती है कि एक मामूली शख्स भी बिना कुछ किए ही अचानक शीर्षकों, उपमाओं और किरदारों के किस्सों के शिखर छूता दिखता है। लेकिन ऋषि कपूर अपने जीवन में जो कुछ थे, अपने बूते पर थे। वे अपनी छवि के लिए किसी प्रबंधकीय प्रतिभा की मेहरबानियों के मोहताज नहीं थे। यहां तक कि उनके हर ट्वीट के लेखक तक वे ही हुआ करते थे, इसीलिए अपनी अभिव्यक्ति के परिणाम भी उन्हें पता होते थे। सोशल मीडिया पर वे खुलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन करते थे, सो लॉकडाउन से पहले मोदी के कहने पर उन्होंने थाली बजाई, तो ट्रोल करनेवालों को मुंहतोड़ जवाब देने से भी नहीं चुके। वे 4 सितंबर 1952 को मुंबई में जन्मे और 67 साल की उम्र में 30 अप्रैल 2020 को मुंबई की माटी में समा गए।
हमारे संसार के सामान्य लोगों की आदत में हर किसी में किसी और का अक्स तलाशने की आदत रही है, लेकिन ऋषि कपूर में अभिनय के उलझे हुए समीकरण सुलझाने की एक गजब किस्म की त्वरित तात्कालिकता थी, जो उन्हें किसी और का विकल्प बनने की मजबूरी में जीवन भर नहीं फांस पाई। और जिंदगी भर कई कई किस्मों की कमाल की भूमिकाएं करने के बावजूद वे किसी भी छवि में भी नहीं बंधे। उन्होंने हर तरह की फिल्में की। फिल्में तो उनकी करीब 160 से भी ज्यादा हैं, और हर कोई पहलेवाली से ज्यादा जबरदस्त। फिर भी उनकी ‘बॉबी’ में अमीरी-गरीबी का स्नेह दिखा, तो ‘प्रेम रोग’ में विधवा से विवाह का विवादित मुद्दा। ‘दूसरा आदमी’ तो नाम से ही जाहिर थी तो ‘एक चादर मैली सी’ में भाई की मौत पर भाभी से शादी की परंपरा का पर्दाफाश करने का काम भी किया। लेकिन अपनी ज्यादातर रोमांटिक फिल्मों के किरदारों में उन्होंने प्रेम के पराक्रम का प्रभाव कुछ इस कदर परोसा कि वे सीधे स्मृतियों में बस गए।
दरअसल, उनके भीतर कला प्रतिभा का जो सतत बहता हुआ झरना था, उसका स्रोत भले ही पिता राजकपूर और उनके पिता पृथ्वीराज कपूर थे। लेकिन अपने झरने के इस जल की मौलिकता के मालिक तो वे खुद ही थे, जिसमें बहुत तलाशने के बावजूद किसी को भी किसी और का अक्स कभी नहीं दिखा। अपनी सामान्य बातचीत में भी उन्होंने कभी किसी को एहसास नहीं होने दिया कि उनको जानलेवा कैंसर भी है। ऐसे इसीलिए वे कर पाए, क्योंकि वे जिंदादिल व्यक्ति थे और यही जिंदादिली कपूर खानदान की खासियत रही है। इसीलिए आखरी सांस तक ऋषिकपूर ने अपनी इस खानदानी खासियत को कम होने नहीं दिया। ऋषि कपूर की यही जिंदादिली सोशल मीडिया पर भी उनके आखरी दिनों तक जबरदस्त धमक दिखाती रही। कला को ही अपना जीवन धर्म बनानेवाले तो आज भी बहुत हैं और पहले भी कई हुए, लेकिन ऋषि कपूर ने सिनेमा और जिंदगी की असलियत के अक्स में अपने जीवन की परंपराओं को समझते हुए खुद को गढ़ा। सच कहें, तो ऋषि कपूर एक ही हो सकते थे और हुए भी। इसीलिए, अपना मानना है कि अब इस संसार में कोई दूसरा ऋषि कपूर पैदा नहीं होगा। आपको भी यही लगता होगा! (प्राइम टाइम)