Hazrat Nizamuddin: भारत के लैंड रिकॉर्ड रजिस्टर में एक गांव का नाम है। 1916 में बनाए गए इस रजिस्टर में लिखा है कि इस गांव की आबादी 400 परिवारों की है, यहां एक बड़ा कब्रिस्तान है और मजार और मदरसे हैं। इस गांव में एक गुरद्वारा भी है और यहां की आबादी में मुस्लिमों की संख्या 65 प्रतिशत से ज्यादा है। अगली बार जब आप दिल्ली में बहुत अभिजात और महंगे कहे जाने वाले निजामुद्दीन इलाके में मौजूद हों और वहां मैकडोनल्ड से ले कर क्वालिटी आइसक्रीम तक की सजी हुई दुकानें देखें या एक घर में दस-दस एयरकंडीशनर्स वाली कोठियां देखें, तो ग्यासपुरा को याद कर लीजिएगा। सरकारी लैंड रिकॉर्ड में जिस गांव का नाम ग्यासपुरा के तौर पर दर्ज है, वह यही है। अब न गांव रहा और न गांव वाले। सैमसंग के प्रेसिडेंट यहां रहते हैं, बीबीसी रेडियो सेवा का ऑफिस यहां है और जयपुर कोठी के नाम से बने हुए भव्य मकान है, जिनमें अभी हाल तक राजीव गांधी के सहपाठी सुमन दुबे भी रहा करते थे। लेकिन दुनिया में यह इलाका एक मजार के लिए जाना जाता है और यह मजार अपने आप में और अपनी महिमा में अजमेर-शरीफ से कम नहीं आंकी जाती।
संगीत और साधुत्व के मेल का निजामुद्दीन
होने को इस मजार के पड़ोस में मुगल बादशाह हुमायूं का मकबरा भी है और उसका परिसर बहुत बड़ा और बहुत भव्य है, लेकिन जो हैसियत हजरत निजामुद्दीन औलिया के मजार की है, वह किसी बादशाह के मकबरे की नहीं हो सकती। आखिर मौत ही वह पैमाना है, जो किसी की कालातीत महिमा को स्थापित करती है। एक बहुत पुराने गोल गोबंद के कोने पर नामालूम सी दुकानों के बीच से एक रास्ता जाता है और उसकी मंजिल यही मजार होती है। इसी मजार में पूरी दुनिया में सूफी शायरी के जन्मदाता कहे जाने वाले अमीर खुसरो भी आ कर रहे थे और यहीं औलिया के कदमों में उन्होंने आखिरी सांस ली थी। मजहब और मोक्ष के इस वातावरण में अदब के इस मसीहा की मजार भी मौजूद है और अक्सर यहां औलिया की शान में सूफी कव्वालियों की जो सात्विक महफिलें जमती हैं, उनमें खुसरो के कलाम गाए जाते हैं। हजरत निजामुद्दीन औलिया कोई 683 साल पहले सत्तर साल तक सूफी की अलख जगाने के बाद यही अपनी देह छोड़ गए थे और अब उनकी महिमा यहां इतनी है कि उनके नाम पर एक छोटा-मोटा शहर बसा हुआ है। सूफी पंथ की चिश्ती धारा के एक मस्त मलंग बाबा हुआ करते थे-हजरत बाबा फरीद। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव से रोजी-रोटी की तलाश में निजामुद्दीन का परिवार दिल्ली आया था और बाबा फरीद की सराय में ही रुका था। परिवार तो इधर-उधर हो गया, लेकिन निजामुद्दीन बाबा फरीद के न सिर्फ शार्गिद बने, बल्कि बाबा फरीद ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने लायक भी पाया। बाद में सूफी पंथ की चिश्ती परंपरा को औलिया बन चुके निजामुद्दीन ने संगीत और साधुत्व के अभूतपूर्व मेल से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार, बंगाल और कर्नाटक तक फैलाया। उनके चेलों की मजारें आज भी वहां पूजी जाती हैं।
सूफी पंथ असल में प्रेम सिखाता है
जैसे अजमेर शरीफ है, वैसे ही हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह सारी भौगोलिक और राजनैतिक सीमाएं लांघ जाती है और यहां के दरवेशों में यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि कौन हिंदुस्तानी है और कौन पाकिस्तानी और कौन बांग्लादेशी। किंवदंतियां बहुत हैं, लेकिन अवतारों के ठिकानों की तरह यहां मुर्दों को जिंदा करने की या आसमान से राख या लॉकेट पैदा करने की मिसालें नहीं कहीं जातीं। हजरत निजामुद्दीन औलिया के जो वचन यहां के लोग और खादिम याद करते हैं, उनके अनुसार हम यहां लोगों को चैन देने, सुकून देने और उनके मन को मैल से दूर रखने के लिए बुलाते हैं और यहां से जो जाता है, वह अपनी जिंदगी में चाहे जो पेशा करते रहे, दिल से दरवेश ही रहता है। इस्लाम का सूफी पंथ असल में प्रेम सिखाता है। यह अल्लाह को कोई दूर की या समझ में न आने वाली ताकत करार नहीं देता, बल्कि प्रेम करना उसकी भक्ति का एक मुख्य तरीका है। यही तरीका हिंदू धर्म में मीरा बाई ने सिखाया था और इसी की सीख दे कर आज श्री श्री रविशंकर भगवान होने के लगभग करीब पहुंच गए हैं। हजरत निजामुद्दीन औलिया ने कहा था कि दरवेश के लिए तीन चीजें जरूरी हैं और तीनों अरबी के आइन अक्षर से शुरू होते हैं। ये हैं-इश्क, अक्ल और इल्म। प्रेम की इसी धारा को बहाने के लिए हजरत निजामुद्दीन औलिया का दूसरा नाम महबूब-ए-इलाही भी है यानी अल्लाह का प्यारा। बहुत साल बाद बीसवीं सदी में जो कह कर जिद्दू कृष्णमूर्ति बौध्दिक आध्यात्म के संसार में अमर हो गए, वह तो हजरत निजामुद्दीन औलिया सात सौ साल पहले कह चुके थे। उन्होंने कहा था कि मैं खुदा नहीं हूं, आपका हमसाया और हमराह हूं, अपना रास्ता मैंने खुद बनाया है और तुमको खुद बनाना है। राजा हो या रंक, जो पहले से बनाए रास्तों पर चलता है, उसका भला नहीं होता।
सात दिन में पूरी कुरान-शरीफ कंठस्थ
हजरत निजामुद्दीन औलिया का परिवार असल में अफगानिस्तान के बुखारा से था। उनके नाना को ख्वाजा अरब कहा जाता था और वे कुछ दिन लाहौर रह कर उत्तर प्रदेश के बदायूं में आ कर बस गए थे और खेती-किसानी करने लगे थे। इस्लामी कैलेंडर के सफर महीने की 27 तारीख को निजामुद्दीन का जन्म हुआ था और उस दिन दरगाह पर भीड़ उमड़ती है, हजरत निजामुद्दीन औलिया की मजार को बार-बार नहलाया जाता है और उस पवित्र पानी को भक्तों में प्रसाद के तौर पर बांटा जाता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के बारे में कहा जाता है कि पांच साल की उम्र में उनके पिता नहीं रहे थे और उनकी मां जब उन्हें मदरसे में ले गई थी, तो सात दिन में उन्होंने पूरी कुरान-शरीफ याद कर ली थी। इसके बाद अरबी व्याकरण सीखा और कुरान की आयतों को तर्कों के सांचे में ढालने लगे। ऐसे लोगों को इस्लाम में तफासीव कहते हैं और कहा जाता है कि औलिया गणित और अंतरिक्ष शास्त्र में भी दखल रखते थे।
मस्त कलंदर का जन्म भी यहीं हुआ
बाबा फरीद जानते थे कि संगीत सबको बांधता है और इसीलिए उन्होंने अब पाकिस्तान का हिस्सा बन गए मुल्तान से अबू वक्र नाम के एक मशहूर कव्वाल को बुलाया। यह कव्वाल बाबा फरीद की शान में कुछ गाना चाहता था और कहा जाता है कि उसके लिए बाबा फरीद की कव्वालियां खुद हजरत निजामुद्दीन औलिया ने लिखीं। हर नमाज के बाद वे बाबा फरीद का नाम लेते थे और उस सनातन भारतीय धारणा को बल देते थे कि गुरु सबसे बड़ा होता है और उसके बगैर अल्लाह के दर्शन भी नहीं होते। बाबा फरीद के मुरीद बनने के बाद शार्गिद बनने तक हजरत निजामुद्दीन औलिया ने बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे और आखिर बाबा फरीद ने अपने शिष्य को वली-ए-हिंदुस्तान यानी देश का संत घोषित कर दिया। आज का निजामुद्दीन बहुत सारी परंपराओं, रिवाजों और रवायतों को एक साथ ले कर चलता है। सराय में बहुत जगह नहीं बची, मगर जो दे सकते हैं, वे बहुत सारे कबंल दे गए हैं और जिस दरवेश की मर्जी हो, जो चाहे कंबल उठा ले और रात बिता ले। एक बड़े कढ़ाह में बिरयानी बनती है और वही बाबा का प्रसाद होता है। कभी संगीत तो कभी नमाज के सांगीतिक सुरो में डूबने वाली हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह आज के आधुनिक पूर्वी और पश्चिमी निजामुद्दीन के पड़ोस का एक स्मारक ही सही, लेकिन बिना किसी तामझाम और कलाकारी के बनाए गए, इस मजार में करोड़ों लोगों की उम्मीदें और आस्था बसती हैं। अमीर खुसरो के मस्त कलंदर नाम के मशहूर भजन का जन्म भी यहीं हुआ और जैसा कि पहले बताया, खुसरो यहीं दफन हैं।
कई कई चेहरे हैं हजरत निजामुद्दीन के
हजरत निजामुद्दीन के कई चेहरे हैं। एक तो यह कि पश्चिम और उत्तर से आने वाली बहुत सारी रेलगाड़ियों का एक व्यस्त रेलवे स्टेशन है, जिसे समकालीन चेहरा देने की कोशिश की जा रही है। दूसरे यह अमीर लोगों को आशियाना है, जहां अमीरी के सारे अवयव मिलते हैं। विदेशी कारें, विलायती कुत्ते, आधुनिकतम तकनीकी सुविधाएं, बड़े पार्क और चमकदार सड़कें। यह वह हजरत निजामुद्दीन है, जिसे आज की पीढ़ी जानती है। आज से कोई सौ साल पहले तक यह एक घना जंगल था और मुगल बादशाहों के इतिहास में बार-बार दर्ज है कि यहां बादशाह और उनके शहजादे शिकार खेलने आया करते थे। ओबरॉय होटल के सामने वाले फ्लाईओवर से उतरें तो जो गोल गुंबद नजर आती है, उसके भीतर अब भी एक पानी से लबालब भरी बावली है और यह उन दुर्लभ और अनोखी बावलियों में से एक है, जिसके भीतर लगातार झरना बहता है। पता नहीं किस तर्क से इसे बंद ही कर दिया गया है।
अब कुछ बदला बदला सा निजामुद्दीन
हजरत निजामुद्दीन का दूसरा चेहरा पश्चिमी निजामुद्दीन में नजर आता है, जहां भीड़ है, जायरीन यानी तीर्थ यात्री हैं, उनके लिए बना हुआ छोटी-छोटी दुकानों का एक पूरा बाजार है, छोटे-बड़े होटल हैं और दिल्ली के पर्यटन नक्शे में शामिल हो चुका होटल करीम भी है, जहां बड़े से बड़ा आदमी पैदल ही जाता है क्योंकि कार ले जाने की जगह वहां है ही नहीं। वैसे भी दरवेश और औलिया के पड़ोस में पैदल चलना ही सबकी नियति होती है। साल में तीन मेले लगते हैं और हर शुक्रवार को नमाज के दिन अच्छी-खासी भीड़ होती है। यहां की नमाज अनोखी होती है। यह नहीं कि आयतें पढ़ कर अल्लाह को याद किया और चलते बने। शरीयत और कुरान की लगातार समकालीन होती परिभाषाओं को यहां याद किया जाता है और अच्छी-खासी, लेकिन बिना उत्तेजना की बहसें इन मजहबी विषयों पर होती हैं। सांप्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता पर जो लोग दिन-रात खपाते रहते हैं, वे अगर हजरत निजामुद्दीन के कदमों में कुछ वक्त बिता लें, तो उनकी समस्याओं का अपने आप निदान हो जाएगा।
-सुप्रिया रॉय (शब्दार्थ)
(देश की प्रतिष्ठित पत्रकार सुप्रिया रॉय का यह लेख, उन्होंने 12 मार्च 2008 को लिखा था)