निरंजन परिहार
राजस्थान के विधानसभा चुनाव शुरू होने से पहले तो बिल्कुल ऐसा ही लग रहा था कि राजस्थान में बीजेपी की क्षत्रप नेता वसुंधरा राजे को पूरी तरह से निपटा दिया जाएगा। लेकिन जैसे जैसे चुनाव की प्रक्रिया आगे बढ़ी और लोकसभा चुनाव में जीत की चिंता सताने लगी, तो राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को घूम फिर कर अपने क्षत्रपों की ओर लौटना पड़ा, इसी वजह से वसुंधरा राजे के लगभग तमाम समर्थकों को तो टिकट फिर से मिला ही, स्वयं वसुंधरा राजे को भी पार्टी में महत्व मिलने लगा है। अब साफ तौर पर लगने लगा है कि चुनाव के अलावा भी कई राज्यों में पार्टी के प्रादेशिक क्षत्रपों का महत्व कम नहीं हो रहा है, बल्कि ऐसा लग रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में भी उनको पूरी तरजीह मिलेगी। मिसाल के तौर पर हरियाणा में बीजेपी को पूरी तरह से मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पर निर्भर रहना मंजूर नहीं ता, तो उनके बनाए अध्यक्ष को हटाकर सैनी को प्रदेश में बीजेपी का मुखिया बना दिया गया है। इसी तरह राजस्थान में वसुंधरा राजे भले ही अब लगभग पूरी तरह से संगठन को नियंत्रित नहीं कर रहीं हैं, लेकिन उनके बिना पत्ता भी नहीं खड़केगा, यह साफ लगने लगा है।
कुछ दिन पहले तक राजस्थान में बीजेपी आलाकमान ने वसुंधरा राजे को पूरी तरह से अलग-थलग किया हुआ था। यह उनके लिए एक तरह से बेहद अपमानजनक स्थिति थी और उससे भी ज्यादा अपमान यह था कि उम्मीदवारों की पहली सूची में उनका नाम तक नहीं था और उनके कई समर्थकों की टिकट भी काट दी गई। लेकिन दूसरी सूची देख कर ऐसा लगा कि बीजेपी ने भूल सुधार कर दिया। वसुंधरा को उनकी परंपरागत झालरापाटन सीट से उम्मीदवारी दी गई और साथ ही उनके करीबियों को भी उम्मीदवारी दी गई है। जयपुर के विद्याधरनगर से पहली सूची में नरपत सिंह राजवी का टिकट काट दिया गया था, लेकिन बाद में राजवी को चितौड़गढ़ से उम्मीदवार बनाया गया। राजवी चित्तौड़ से पहले भी जीते हैं और अब यह इलाका प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी का गृह क्षेत्र हैं, जहां से वे खुद भी लगातार दूसरी बार लोकसभा के सांसद हैं। अपने इलाके से बीजेपी उम्मीदवार को जिताना उनका व्यक्तिगत जिम्मेदारी भी है, सो राजवी की जीत वैसे तो सुनिश्चित ही है, फिर भी सीपी के सहारे नैया पार लगना आसान भी होगा। कभी वसुंधरा राजे के खेमे में रहे विपक्ष के नेता राजेंद्र राठौड़ को भी तारानगर से उम्मीदवारी मिली है। मतलब वसुंधरा का राजनीतिक वजन तो बढ़ा है, लेकिन इसके बावजूद पहले की तरह पूरी तरह से कमान वसुंधरा राजे के हाथ में नहीं हैं लेकिन पार्टी में उनका महत्व बढ़ा है, यह साफ लग रहा है। क्योंकि बीजेपी आलाकमान को संभवतया इस बात का डर लगा कि राजे की नाराजगी नुकसान पहुंचा सकती है।
आज फिर से वसुंधरा राजे राजस्थान में बीजेपी में सबसे आगे हैं, लेकिन उनके चेहरे पर चुनाव नहीं हो रहा, पार्टी का चेहरा तो कमल ही है। बीजेपी आलाकमान के सामने में भी वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के घोषित चेहरे की चमक से दरकिनार करके चुनाव कैसे जीता जाए, यह सबसे बड़ा सवाल था। जिसका उत्तर तलाशते तलाशते वक्त बिताकर बहुत चालाकी से बीडजेपी के आलाकमान ने उन्हें चेहरा नबीहीं बनाया। लेकिन पार्टी के सामने सवाल यह भी था कि पहले अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के गृह प्रदेश हिमाचल में सत्ता गंवाने और उसके बाद कर्नाटक में हतोत्साहित करने वाली हार के बाद बीजेपी में उपजी हल्की सी हताश राजनीतिक तस्वीर में राजस्थान बीजेपी में चल रहा बिखराव विधानसभा चुनाव में क्या नतीजे देगा? जिन वजहों से कांग्रेस को जितना कमजोर बताया जा रहा है, वैसी ही वजहों से उतनी ही कमजोर बीजेपी भी तो है। पार्टी में मतभेद हैं, गुटबाजी हैं, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश हैं और जातिगत जनाधार का बंटवारा भी साफ है। जनता की जुबान पर मुख्यमंत्री पद के लिए नामों की सूची दर्जन भर लंबी है, तो उन सभी दर्जन भर नेताओं के बीच टकराव का इतिहास भी कोई नया नहीं है। लेकिन बिना वसुंधरा बीजेपी क नैया पार लगना इस चुनाव में तो किसी को भी आसान नहीं लग रहा था, इसीलिए अघोषित रूप से उनको फिर से आगे लाना पड़ा।
माना कि प्रदेश बीजेपी में वसुंधरा राजे के अलावा ओम बिडला, राजेंद्र सिंह राठौड़, गजेंद्र सिंह शेखावत, ओमप्रकाश माथुर, अर्जुन मेघवाल, राजेंद्र गहलोत, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, किरोड़ीलाल मीणा, सतीश पूनिया और दीया कुमारी जैसे राजपूत, ओबीसी, जाट, दलित व आदिवासी मजबूत नेता व प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी पहले से ही उपस्थित हैं, लेकिन वसुंधरा राजे जब तक राजनीति में सरावांगीण स्वरूप में सक्रिय हैं, उनके बिना इनमें से किसी का भी होना न होना कोई खास मय़ाने नहीं रखता। राजस्थान की राजनीति के इस सत्य को समय रहते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह व जेपी नड्डा भी जान गए हैं। लेकिन वसुंधरा की सक्रियता को सलाम करते हुए अपने प्रादेशिक वरिष्ठ नेताओं के बीच सामंजस्य साधकर सबकी ताकत को वोटों में तब्दील करने की उलझनों को सुलझाना भी तो उनके लिए किसी रहस्यमयी सवाल से कम नहीं है?
बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व जानता है कि राजनीति कुल मिलाकर केवल संभावनाओं का खेल है। लेकिन जहां संभावनाएं खुद ही खेल करने लगें, तो खेल के खत्म होते देर नहीं लगती। इसीलिए बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व साल भर से वसुंधरा राजे के होने के अवरोध को चुपचाप कम करने में जुटा रहा। तथा केंद्रीय नेतृत्व को आभास तो य़ह भी था कि राजनीति में मनमुटाव और परस्पर नीचा दिखाने की होड़ जब व्यक्तिगत स्तर पर ज्यादा सताने लगे, तो बरबादी का रास्ता खुलना तय है। ऐसे में मामला अगर राजनीतिक संगठन का हो तो, और चुनाव से जुड़ा हो, तो जीत मुश्किल हो ही जाती। सो, कहा जा सकता है कि राजस्थान में बिना वसुंधरा के बीजेपी के लिए भी चुनाव जीतना बेहद मुश्किल था। फिर आगे छह महीने बाद लोकसभा के चुनाव हैं, जिसमें राजस्थान की सभी 25 सीटों पर जीत तय करना भी तो बड़ा चैलेंज है। इसीलिए भारी मन से ही सही वसुंधरा को साथ लेकर भाजपा आगे बढ़ती दिख रही है।