निरंजन परिहार
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का बाढ़ पीडित इलाकों की हवाई दौरा पूरा हुआ ही था कि डॉ सतीश पूनिया भी बाड़मेर व जालौर में धमक गए। राजनीति में यह लगभग स्थापित सा ब्रह्मसत्य है कि जमीन से जुड़ा कोई नेता जब अपनी खास किस्म की कोशिशों से अपनी सियासी मुश्किलों को आसानियों में तब्दील करता हुआ शिखर का मुकाम हासिल कर ले, तो वहीं से उसे पटखनी देने की अवाक कर देने वाली कोशिशें भी शुरू हो जाती हैं। लगातार साढ़े तीन साल की मेहनत से जब डॉ सतीश पूनिया प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष के अपने सियासी सफर के शिखर पर पहुंचे, कि अचानक उन्हें बदल दिया गया। लेकिन विरोधियों को पता नहीं था कि सतीश पूनिया ऐसे मनुष्य हैं, जिनकी कहानी को उनके जिस काम से जानना शुरू किया जाए, कहानी वहीं से शुरू होती सी लगती है। आज्ञाकारी स्वयंसेवक की तर्ज पर पूनिया ने विधानसभा में उप नेता प्रतिपक्ष का अपेक्षाकृत कम महत्व वाला पद स्वीकार तो कर लिया, लेकिन उनकी सक्रियता ही उनकी सियासत को संवारने का सबसे बड़ा हथियार साबित हो रही। इसीलिए तो बाड़मेर में बाढ़ के कीचड़ में खड़े होकर डॉ पूनिया मुख्यमंत्री को लगभग ललकारते हुए कह रहे थे कि आपने हवाई सर्वे भले ही कर लिया, लेकिन थोड़ा जमीनी सर्वे भी कर लें, हकीकत जान लें।
कुछ लोग होते ही ऐसे हैं, जो जीवन में जब किसी एक खास रफ्तार को जब पकड़ लेते हैं, उसे कभी कम नहीं होने देते। फिर, पूनिया ने तो छात्र राजनीति के दिनों से ही अपनी रफ्तार कुछ ज्यादा ही तेज कर ली थी। वे बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटे तो भी उन्होंने अध्यक्ष के रूप में अपनी शुरू की हुई जन संघर्ष यात्रा में उपस्थित रहने को जरूरी माना। प्रवासी राजस्थानियों से मिलने लगातार दो बार विदेश पहुंच गए, पहले ऑस्ट्रेलिया और फिर उज्बेकिस्तान। लौटे तो सुबह सैकड़ों लोगों से मुलाकात और शाम को दूर दराज के दौरे। जो लोग डॉ पूनिया के रोजमर्रा के राजनीतिक जीवन के गवाह हैं, वे और उनके विरोधी भी कहते हैं कि सतत सक्रियता और लगातार लगे रहने की जो त्वरित ताकत डॉ पूनिया में है, वह औरों में आसानी से नहीं दिखती।
हमारे देश का समाज अब भी मानसिकता के लिहाज से राजनीति में भी नेता नहीं, नायक खोजता है। और यह तो एकदम साफ है कि हाल के वर्षो में डॉ पूनिया का जो उत्थान हुआ है, उसके लिहाज से राजस्थान का एक वर्ग उनमें अपना नायक ही देखता दिख रहा है। इसी कारण, भले ही न तो डॉ पूनिया ने कभी खुद ऐसे कोई संकेत दिए और न ही उनके किसी हाव भाव से यह प्रकट हुआ, फिर भी दर्जनभर बड़े नेताओं ने पूरी पार्टी में पता नहीं यह कुप्रचार क्यों फैलाया कि पूनिया तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। इसे डॉ पूनिया की ताकत मानना होगा कि बीजेपी के बड़े बड़े दिग्गजों के बीच जूनियर होने के बावजूद उनका होना सबको चिढ़ा रहा है। गनीमत है कि राजनीति का गुणा भाग करने वालों को यह तथ्य याद नहीं आया कि सक्रियता की सार्थकता को सिद्ध करने वाले पूनिया को पीछे धकेलना आसान खेल नहीं है।