Rajasthan: घूंघट को आज कोई अपनी पावन परंपरा, सामाजिक संस्कार और संस्कृति से जोड़कर गौरवान्वित होने का प्रयास भले ही कर ले, लेकिन असल में घूंघट (Ghnughat) भारतीय संस्कृति का हिस्सा कभी रहा ही नहीं। इसे मुगलकाल की देन माना जाता है। घूंघट के साथ हमेशा एक विवाद जुड़ा रहा है। वैसे, सर पर ओढ़नी रखने और ओढनी में चेहरे को ढंकने में से घूंघट क्या है, यह जान लेना भी जरूरी है। कोई चेहरा ढंकने को घूंघट कहता है और इसे संस्कार समझता है, कोई उसे सुरक्षा तो किसी की राय में यह गुलामी है। वैसे, जिनको घूंघट की ठेकेदारी निभानी हैं, वे घूंघट निकालने की मजबूरी थोपने की कोशिश करके केवल संस्कारों के नाम पर अपनी महिलाओं पर दबदबा भले ही बनाएं, लेकिन असल में घूंघट कोई भारतीय संस्कार या परंपरा नहीं बल्कि डर का परदा है, जो मुगलों की देन है।
राजघरानों की महिलाओं ने मुगल शासन की समाप्ति के बाद सबसे पहले घूंघट से किनारा कर लिया। सन 1940 के दशक की राजपरिवारों की महिलाओं की कुछ तस्वीरें गवाह है कि वे घूंघट नहीं निकालती थी और कुछ तो खुले सिर ही रहती थीं। वर्तमान पीढ़ी में भी राजपरिवारों की महिलाओं को घूंघट में किसी ने कभी नहीं देखा। लेकिन शहरी क्षेत्रों को छोड़कर ग्रामीण इलाकों में तो राजपूत महिलाएं ही नहीं दलित महिलाएं अभी भी घूंघट में ही देखी जा सकती हैं। राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार अरविंद चोटिया कहते हैं – घूंघट कभी हमारी संस्कृति नहीं था। मजबूरी में अपनाना पड़ा था। मैं संस्कारों का सम्मान करता हूं लेकिन लोकतंत्र के संस्कार अलग होते हैं। लेकिन आखिर संस्कृति के नाम पर महिलाओं को कब तक दबाकर रखेंगे? चोटिया कहते हैं कि आम तौर पर सशक्त महिलाएं घूंघट नहीं निकालती।
राजस्थान के राजघरानों पर नजर डालें, तो उदयपुर की निवृत्ति कुमारी मेवाड़ और सांसद महिमा सिंह मेवाड़, जयपुर की दीया कुमारी जो वर्तमान में उप मुख्यमंत्री है, कोटा की कल्पना देवी, जोधपुर की हेमलता राजे, बीकानेर की विधायक सिद्धि कुमारी, पूर्व मुख्यमंत्री एवं धौलपुर राजपरिवार की वसुंधरा राजे, जैसलमेर की राजेश्वरी राज्यलक्ष्मी, विधायक रहीं डीग की कृष्णेंद्र कौर को संभवतया किसी ने घूंघट में नहीं देखा होगा। इंदिरा गांधी से भिड़ने वाली राजनेता रहीं राजमाता गायत्री देवी कभी घूंघट में नहीं दिखीं, तो दिग्गज नेता रहीं राजमाता विजया राजे सिंधियां भी घूंघट में नहीं रहीं। बड़ौदा की महारानी सीतादेवी की 1945 की तस्वीर देखिये, या नाभा की महारानी उर्मिलादेवी की 1948 की तस्वीर देख लीजिए या फुर कोई चाहे तो ग्वालियर की महारानी दिव्येश्वरी देवी की 1940 की तस्वीर देख ले, घूंघट किसी के सर पर नहीं रहा। इन सभी सम्मानित राजघरानों की महिलाओं के हवाले से घूंघट की वकालात करने वालों से सवाल केवल यही किया जा सकता है कि क्या इन महिलाओं का संस्कारों सो कोई सरोकार नहीं?
राजस्थान में 2019 के अंत में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के घूंघट के रिवाज को हटाने की कोशिश में एक अभियान चलाने की जानकारी देते हुए राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार बताते हैं कि गहलोत ने कहा था कि ‘जब तक घूंघट नहीं हटेगा महिलाएं कभी आगे नहीं बढ़ पाएगी। कुछ ग्रामीण इलाकों में महिलाएं अब भी घूंघट करती हैं, लेकिन अब घूंघट का जमाना गया। नारी अधिकारों के लिए काम कर रहे एक संगठन के कार्यक्रम में भी महिलाओं के बिना घूंघट शामिल होने की ओर इशारा करते हुए मुख्यमंत्री गहलोत ने कहा था कि हिम्मत और हौसले के साथ आपको आगे बढ़ना पड़ेगा। सरकार आपके साथ खड़ी मिलेगी। उन्होंने कहा था कि समाज को किसी महिला को घूंघट में कैद करने का क्या अधिकार है? परिहार बताते हैं कि जनवरी 2020 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने घूंघट के खिलाफ सरकारी अभियान की शुरूआत भी की थी।
रामायण और महाभारत काल में हम देखें, तो उस जमाने में भी महिलाओं के सिर ढकने का भी कोई उद्धरण नहीं है। महिलाएं प्राचीनकाल से साड़ी पहनती आ रही हैं, लेकिन वे भी चेहरा नहीं ढकती थीं। घूंघट का चलन मध्यकाल से शुरू हुआ, जब मुगल भारत आए असल में महिलाओं को परदे में रखना मुस्लिम शासकों का रिवाज रहा है। लेकिन मुस्लिम आतताईयों के डर से चला घूंघट का रिवाज बाद में हमारी परंपरा का हिस्सा बन गया, जो आज भी राजस्थान तथा मालवा के ग्रामीण इलाकों में देखा जाता है।
मुगल चले गए, मगर सामाजिक डर छोड़ गए। सो, कालांतर में हमने घूंघट को महिलाओं की लज्जा और उनके सामाजिक मान-सम्मान व मर्यादा से जोड़ दिया, और लोग कहने लगे कि जो महिलाएं घूंघट करती है, उसे समाज में आदर सम्मान मिलता है। विवाह में घूंघट निकालने की परंपरा भी मुगलकाल से ही शुरू हुई, क्योंकि स्त्री के सजने संवरने से उसका रूप निखरता है, तथा उसकी सुंदरता पर कोई वार न करे, इसीलिए विवाह में स्त्री के घूंघट की परंपरा शुरू होना माना जाता है। लेकिन विवाह के कई साल गुजरने के बाद भी महिलाएं घूंघट से अपना दामन नहीं छुड़ा पातीं।
इतिहास साक्षी है कि मुगलों के अत्याचारों से अपने परिवार की महिलाओं को बचाने के लिए सबसे पहले राजपरिवारों के पुरुषों ने घूंघट प्रथा शुरू की। लेकिन बाद के दिनों में घूंघट को राजस्थान, निमाड़ और मालवा में परंपरा से जोड़ा जाता रहा है। इस्लामी मुगल साम्राज्य के तहत, महिलाओं के लिए घूंघट और एकांत में रहने के विभिन्न पहलुओं को अपनाया गया था, जैसे कि पर्दा और ज़नाना की अवधारणा। ये पर्दा प्रथा 15वीं और 16वीं शताब्दी में आम हो गई, जैसा कि इतिहासकार विद्यापति और चैतन्य दोनों ने उल्लेख किया है।
-राकेश दुबे