हमारे अपनों के शव ही अब अछूत गठरियां हैं। अत्यंत आत्मीय की अकाल मृत्यु पर भी बेजान पुतला बने रहना हमारी नियती है। और पिता अपनी संतान का कंधा तक न मिलने को अभिशप्त। अंतिम संस्कार में हमारे जीवन संस्कार भी स्वाहा होते दिख रहे हैं। एक समान पोशाक, एक समान पीड़ा, समान निर्वासित भाव और दर्द भी एक समान। बहुत समानता है सबके मन की तकलीफ में भी। कोरोनाकाल में मरती मानवीयता और सिमटती संवेदनाओं का मार्मिक आंकलन –
निरंजन परिहार
मृत्यु अब उनको भी बहुत डराने लगी है, जिनका कलेजा पक्के पत्थर जैसा है। कोरोनाकाल में ईश्वर से हर किसी की प्रार्थना यही है कि जीवन भले ही हमें कैसा भी मिले, किंतु मृत्यु ऐसी किसी को न मिले, जैसी इन दिनों मिल रही है। जी हां, किसी को भी नहीं, दुश्मन को भी नहीं। सामान्य मनुष्यों को तो भूल ही जाइए, चमक दमक से लक दक और ऐश्वर्य से भरपूर बहुत विराट और वैभवशाली जीवन जिनकी जिंदगी का हिस्सा रहा है, उनको भी इन दिनों मृत्यु ऐसी मिल रही है कि वेदना स्वयं भी विदीर्ण हो रही है। कोरोना के क्रूर जबड़ों में मनुष्य अचानक बेजान शव में परिवर्तित हो रहा है।
मृत्यु इससे पहले इतने अनादर की कुपात्र कभी नहीं रही। अनजान अस्पतालों में पार्थिव शरीर परायों के हाथों लबादो में लिपट रहे हैं, एंबुलेंस में लद रहे हैं, सीधे श्मशान में उतर रहे हैं और नंबर के हिसाब से उनकी बारी आने पर रख दिए जाते हैं चिताओं पर, परायों और अनजानों के हाथों। न शव के साथ उसका कोई अपना और न किसी अपने का अंतिम कंधा। न अंतिम स्नान और न ही अंतिम विदाई । न अंतिम दर्शन, न अंतिम स्पर्श, न अंतिम जल और न ही मृतक की आत्मा के मोक्ष और शांति की अंतिम प्रार्थना। न दिया, न बाती, न ही पूजा, और न ही फूल की पंखुरी तक। कुछ भी नहीं। कोरोना ने हमारे जीवन संस्कारों की सूची से मृत्यु का सम्मान भी अचानक छीन लिया है। हालात अत्यंत दुखद, दर्दनाक और दारुण है। जिसकी दास्तान सिनने तक से सिरहन सी होने लगी है। यह कैसा मंजर है कि मृत आत्मा की मुक्ति व मोक्ष की जिन पावन परंपराओं को हमारा समाज सदियों से संवारता आया है, उसी परंपरा का भी अंतिम संस्कार हो रहा हैं, हर जगह हर रोज और हर किसी के हाथों।
माना कि मनष्य अकेला जन्मता है, अकेला ही मरता है, लेकिन जीवन अकेला नहीं जीता। इसीलिए कोई जब अकेला ही अंतिम राह पर निकल जाता है, तो भी लोग छोड़ने जाते हैं श्मशान तक। कंधा देने के लिए। लेकिन कोरोना तो हमसे किसी अपने की आखिरी यात्रा में शामिल होने के हक भी छीन रहा है। संक्रमित लोग अस्पतालों में अकेले हैं। भर्ती होते हैं तब भी और संसार वे विदा होते हुए भी। लोग अकेले ही चुपके चुपके संसार से चले जा रहे हैं। न अंतिम दर्शन, न मुखाग्नि और न ही अंतिम स्नेहिल स्पर्श। सूखी आंखें, भारी मन, आहत आत्मा, भींचे हुए कांपते होठ और शून्य में ताकते सन्न सांसों से अकेले ही हम अपने आंसूओं को पोछने को मजबूर। कितने मजबूर हैं हम कि हम सब एक साथ मिलकर अपने निरपराध आत्मीयजनों को अकेले ही संसार से जाता देख रहे हैं, असहाय और बिल्कुल बेचारे से। न कोई तीये की बैठक, न बारहवां और न ही तेरहवीं की रस्म, यहां तक कि प्रार्थना सभा की परंपरा भी नहीं। कोरोना हमारी संवेदनाओं को तो सोख ही रहा है, सबको निर्मम भी करता जा रहा है।
जिन अपनों ने हमें सपने देखना सिखाया और उन देखे हुए सपनों के सहारे जगत को जीतना भी सिखाया, उन्हीं की सूखती सांसों और अंतिम समय में परिस्थितियों से हारे हम जिंदा होते हुए भी तिल तिल मरने को अभिशप्त हैं। हमारी संस्कृति में जन्म से मृत्यु तक के सोलह संस्कारों से समृद्ध जीवन के हर संस्कार की अपनी महानता का महत्व है। हम अंतिम संस्कार की परंपरागत रस्मों में मृतक की आत्मा के मोक्ष और उसकी मुक्ति तलाशने वाले लोग हैं। लेकिन कोरोना के इस दर्दनाक दौर में किसी अपने के अंतिम संस्कार की परंपरा निभाने में भी हम लोग स्वयं की मृत्यु के संदेश से सहमे हुए हैं। मृत्यु हमारी कल्पनाओं के पार भी इससे पहले इतनी भयानक, भयावह और भयाक्रांत कर देनेवाली कभी नहीं थी। लेकिन आज है, तो ऐसे में सवाल सिर्फ एक ही है कि क्या अब हम अपने ईश्वर से मृत्यु की आसानी मांगना भी छोड़ दें?