निरंजन परिहार
राजस्थान में सियासी शतरंज बिछ चुकी है। विधानसभा चुनाव चालू है। अशोक गहलोत उत्साह में हैं, महारानी वसुंधरा राजे मात न खाने की मंशा से तपस्या कर आई हैं, हनुमान हूंकार भर रहे हैं, और रणनीतिकार सियासत के सूत्र पकड़ने में व्यस्त हैं। बीजेपी में चेहरा केवल कमल है, तो कांग्रेस में सचिन पायलट का चेहरा मुरझाया हुआ हैं। इन सबके बीच राजस्थान की सियासत सवालों से उबल रही हैं। कांग्रेस में सवाल यह कि हिचकोले खाते हालातों में सरकार कैसे रिपीट हो, बीजेपी में सवाल यह कि आखिर कौन कहां बैठेगा और छोटी पार्टियों में यह कि अगले विधानसबा चुनाव में उनका क्या होगा?
राजस्थान में राजनीति और राजनेता दोनों का हाल कुछ ज्यादा ही बेहाल है। आप इस बेहाली बदहाल भी कह सकते हैं, क्योंकि सच्चाई भी यही हैं। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही दलों में अंदरूनी खींचतान, गुटबाजी, परस्पर मात देने की कोशिश और मनमुटाव का माहौल मचल रहा है। कांग्रेस में सवाल यह है कि पार्टी संगठन के खस्ताहाल होने के बावजूद आखिर अशोक गहलोत की इतनी मेहनत क्या रंग लाएगी। तो, बीजेपी में सवाल यह कि केंद्रीय नेता अपने दर्जन भर प्रादेशिक नेताओं की खींचतान खत्म करके पार्टी को सत्ता में लाने का पथ कैसे संवारेंगे? सवाल यह भी है कि इन दोनों बड़े दलों के दंग करने वाले दलदल में छोटी पार्टियां कैसे अपनी जमीन तलाशेंगी, और सवाल यह भी है कि रेतीले राजस्थान की राजनीति में कौन इस चुनाव में शिखर पर होगा, किसकी सदा के लिए समाप्ति हो जाएगी और किसको जीवनदान मिल जाएगा। इस सबके बीच सवालों के घेरे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राजस्थान की जनता ‘एक बार तू और एक बार मैं’ वाला फार्मूला तोड़ने का मन बना चुकी है या परंपरा बरकरार रहेगी।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपवनी गुलाबी रंग की जनहितैषी योजनाओं के जरिए सत्ता में आने को सज्ज हैं। लेकिन कांग्रेस के बागी नेता सचिन पायलट उनकी कोशिशों की सफलता को सवालों के घेरे में खड़ा कर रहे हैं। पायलट व उनके समर्थक नेता और मंत्री अपनी ही सरकार को भ्रष्ट बताते हुए पंद्रह दिन की अंतिम चेतावनी के साथ सार्वजनिक संग्राम का ऐलान कर चुके हैं। सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस में रह कर भी कांग्रेस की सरकार के खिलाफ पायलट की खुली बगावत आचानक शांत शांत क्यों? सवाल है कि आखिर कांग्रेस क्या गहलोत और पायलट के बीच मची जंग से से पार पा सकती है? और सवाल यह भी कि ऐसे हाल में कांग्रेस की सरकार को फिर से रिपीट कराने में गहलोत को कितनी मुश्किलें आएंगी? सवाल मुश्किल हैं, जवाब उनसे भी ज्यादा मुश्किल हैं।
सियासत के इन सुलगते सवालों का ध्रुव सत्य यह भी है कि राजस्थान की राजनीति में बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो तीन बार मुख्यमंत्री बनने सहित गहलोत के राजनीतिक उत्थान को काफी आसानी से जुगाड़ और अवसरवाद करार देकर अपना कलेजा ठंडा कर लेते हैं, उनके पास गहलोत की ताकत को तोलने के कुछ हल्के तर्क और कुछ कमजोर कारण भी जरूर होगें। लेकिन उन लोगों के लिए यह समझना कठिन है कि अस्तित्व और आकांक्षा के अद्वैत को साधने के लिए निर्गुण और सगुण का नहीं, निराकार और साकार में से केवल साकार का चुनाव करना पड़ता है। अपने 50 साल के राजनीतिक जीवन में गहलोत ने सदा से ही राजनीति के साकार पात्रों को साधने में समय दिया, और एक बड़ी बात यह कि धाराएं भले ही अलग रही हों, न तो गहलोत ने किसी के भरोसे अपनी राजनीति की और न ही किसी से नाता से तोड़ा। न तो नरेंद्र मोदी से, न वसुंधरा राजे से और न ही अपनी पार्टी के आलाकमान से। खुलकर चुनौती तो किसी को दी ही नहीं। राजनीति के पांच दशक के लंबे सफर में गहलोत अपने जीवन के पता नहीं कब और किस मोड़ पर का यह शाश्त सत्य सीख गए थे कि रिश्तों में किया गया निवेश ही असल निवेश होता है। इसीलिए हर बार, हर जगह और हर हाल में वे अपने खास अंदाज में फिर से प्रकट हो ही जाते हैं। सवाल इसलिए भी है कि आखिर ऐसा वे कैसे कर लेते हैं?
यही वजह है कि राजस्थान की कांग्रेसी राजनीति की अब तक की सबसे बड़ी और सबसे लंबी चली बगावत के बावजूद पायलट, बहुत कोशिश करके भी गहलोत का व्यक्तिगत नुकसान नहीं कर पाए हैं। हां, इतना जरूर है कि पायलट की कोशिशों से जो भी नुकसान हो रहा है, वह कांग्रेस पार्टी का हो रहा है, न संगठन सक्रिय हो पा रहा है और न ही कार्यकर्ता। इस जंग वे खुद भी झुलस गए हैं। दो खेमों में बंटवारा साफ है और इस हाल में तो फिर पायलट का भी कोई प्रकट राजनीतिक लाभ कहां है। निश्चित तौर पर पायलट की उम्मीदें और आकांक्षाएं बड़ी भले ही हों, लेकिन ज्यादातर नौसिखिया नेताओं की तरह उनकी नाराजगी में बिगड़ रहे हालात के बाद आखिर उनकी नाव भी किस घाट पर जा कर लगेगी, खुद उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं है। इसीलिए सवाल यह भी है कि कांग्रेस की सरकार फिर से लाने की मुख्यमंत्री गहलोत की सकारात्मक कोशिशें कितनी फलित होंगी, या फलित होंगी भी या नहीं? यह शंका क्योंकि, राजनीति एक तो कोई आसान खेल नहीं है, और दूसरा यह कि राजनीति में खेल खराब होते कोई देर भी नहीं लगती। यह तो आप भी मानते ही होंगे!