निरंजन परिहार
वसुंधरा राजे और सचिन पायलट। दो अलग अलग नेता, अलग अलग पार्टियां और अलग अलग ताकत। लेकिन राज्य एक और लक्ष्य भी एक – मुख्यमंत्री बनना, और हालत भी एक जैसी। दोनों दिग्गज मगर दोनों दरकिनार, दोनों से पार्टी नेतृत्व नाखुश और दोनों की चुनाव में मुख्य भूमिका से बराबर की दूरी। पायलट तो खैर बीते 5 साल से उनकी अपनी ही पार्टी में किसी गैर की तरह जी रहे हैं, लेकिन वसुंधरा राजे के बारे में माना जा रहा था कि चुनाव आते आते वे फिर से मुख्यधारा में आ ही जाएंगी और अपने तेवर भी दिखाएंगी, लेकिन ऐसा तो कुछ भी नहीं हो रहा। चुनाव आयोग आने वाले कुछ दिनों में राजस्थान में विधानसभा चुनाव घोषित करने की तैयारी में है, और पार्टियां भी सज्ज, लेकिन न तो कांग्रेस में पायलट की बाजी पलटती नजर आ रही और न ही बीजेपी में वसुंधरा को अपनी धरा पर किसी तरह की कोई खास भूमिका मिलने के आसार। लग रहा है कि कांग्रेस की कमान तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के हाथ ही रहेगी और बीजेपी में अब चेहरे के नाम पर केवल नरेंद्र मोदी ही होंगे। वसुंधरा इसीलिए विकट संकट में है क्योंकि कुछ सूझ नहीं रहा, क्योंकि वक्त निकल गया, और पायलट इसीलिए पस्त, करे तो क्या करे!
वसुंधरा राजे और सचिन पायलट दोनों राजस्थान में अपनी अपनी पार्टियों में ताकतवर नेता है। दोनों एक दूसरे से कम नहीं। अल्पायु पायलट भले ही कम अनुभवी हैं, लेकिन कांग्रेस में उनका जनाधार मजबूत, तो बीजेपी में वसुंधरा की बराबरी का अनुभवी कोई नहीं। दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री, उससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विदेश राज्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष सहित पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के साथ साथ कुल 5 बार सांसद, 5 बार विधायक, विपक्ष की नेता और जाने कितने पदों पर रही वसुंधरा राजे इन दिनों असाधारण रूप से केवल दर्शक की भूमिका में है। कारण केवल यही है कि आलाकमान अब उनको किसी भी तरह की बड़ी भूमिका देना नहीं चाहता। पार्टी की परिवर्तन यात्राओं में वसुंधरा राजे की उपस्थिति जरूर दिख रही है और कहीं राजनाथ सिंह, तो कही अमित शाह और कहीं नितिन गड़करी और जेपी नड्डा अपने भाषणों में वसुंधरा की सरकार में हुए कार्यों की प्रशंसा करके उन्हें खुश जरूर कर देते हैं। लेकिन कई कई किस्म की सक्रियता व ताकत दिखाने के बावजूद वसुंधरा को बीजेपी ने अपनी चार में से एक परिवर्तन यात्रा का भी नेतृत्व नहीं सौंपा। वजह यही कि बीजेपी अब पार्टी में हर जगह नई उम्र का नया नेतृत्व उभारना चाहती है और उस नई पौध के साथ साथ कई अन्य नेताओं को एक साथ बड़ा बनाना चाहती है। बीजेपी का मकसद यह है कि आने वाले 25 – 30 साल तक पार्टी में नई पीढ़ी आगे बढ़ती रहे व अपने दम पर सरकारें बनाती रहे। पुरानों को पालकर अब नयापन नहीं लाया जा सकता। इसलिए, राजनीति के कुछ अल्पज्ञानी भले ही यह मान रहे हों कि वसुंधरा राजे केंद्र को आंख दिखाती रही है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह उन्हें कम पसंद करते हैं, इसलिए वे उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते। मगर, इस तरह के बचकाने तर्क देने वाले नसुंधरा की आभा से अभिभूत लोग यह भूल जाते हैं कि दिल्ली में बैठे जो नेता इस चुनाव में उन्हें कोई जिम्मेदारी तक नहीं देना चाहते, वे राजनीतिक रूप से ज्यादा ताकतवर हैं या वसुंधरा।
उधर, कांग्रेस में पायलट के पलटवार थम गए हैं। दो महीने से शांति है और इस शांति ने अब स्थापित शांति का रूप धर लिया है। कुछ दिन पहले तक पायलट के उद्देश्य आक्रामक थे और तेवर तीखे। फिर भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने पार्टी में पायलट अपने पांव जमा ही नहीं पाए। अपनी ताकत दिखाने का आखरी शक्तिशाली प्रयास किया अजमेर से जयपुर की पदयात्रा करके, मगर उनकी इस पदयात्रा से ज्यादा चर्चा रही उनके पांव के छालों की। वे मौन प्रदर्शन पर भी बैठे और नई दिल्ली में आलाकमान के सामने अपनी बात भी रख आए, जिसे राजनीतिक हलकों में अपना दुखड़ा रोने की संज्ञा मिलने से ज्यादा कुछ भी नहीं हुआ। आलाकमान के समक्ष पायलट ने जो तीन मांगें रखी, वे मुख्यमंत्री गहलोत द्वारा पल भर में ही जब स्वीकार कर ली गई तो, उसी पल यह मान लिया गया था कि होना – जाना कुछ भी नहीं है। हुआ भी वहीं, पायलट की मांगों पर न तो कोई कार्रवाई और न ही विमर्श। पायलट फिर भी चुप हैं। कुछ भी नहीं बोल रहे और किसी भी तरह की कोई राजनीतिक हलचल नहीं। बस, इतना जरूर है कि कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में सदस्य ले लिया गया है, और राजनीतिक हलकों में इसे उनके मुंह पर चिप्पी चिपकाना कहा रहा है। बाद में तो खैर, राजस्थान कांग्रेस में चुनाव के लिए बनी 8 समितियों में किसी भी समिति में उनको न तो अध्यक्ष बनाया गया और न ही कोई प्रभावी जिम्मेदारी मिली। खास बात यह भी कि राजस्थान में मुख्यमंत्री गहलोत के बाद कांग्रेस में सबसे लोकप्रिय नेता होने के बावजूद पायलट के जूनियरों को बड़ी जिम्मेदारी मिली है, मगर पायलट पार्टी में लगभग दरकिनार ही रखे गए हैं। हर साल 6 सितंबर को हजारों की भीड़ जमा करके जन्म दिन पर जोरदार जलसा करने वाले पायलट इस बार विधान सभा चुनाव के ऐन पहले भी, बिना कोई जलसा किए पहले ही विदेश चले गए और प्रयंका गांधी राजस्थान आई, तो वे मंच पर जरूर दिखे, लेकिन भूमिका कोई नहीं थी।
राजस्थान की राजनीति में, वसुंधरा और पायलट, दोनों सक्रियता दिखाने को बेताब हैं। मगर, अपनी अपनी पार्टियों में कहीं भी कोई हलचल पैदा न कर पाने के कारण दोनों के समर्थक हैरान हैं। राजस्थान में निश्चित तौर पर वसुंधरा एक बहुत बड़े वर्ग की पहली पसंद हैं, खास कर महिलाओं में। उन्हीं की तरह प्रदेश के कई जिलों में पायलट को पसंद करने वालों की भी बड़ी संख्या है। लेकिन दोनों को उनकी पार्टी ही भाव नहीं दे रही, तो भले ही कुछ लोग कहें कि दोनों पार्टियों को इसके नुकसान भी उठाने होंगे, मगर सच यह है कि दोनों ही पार्टियों का आलाकमान अपने अपने इन दोनों नेताओं की ताकत को तौलने के बाद ही उनको दरकिनार किए हुए हैं। मान लिया जाए कि पायलट को आगे बढ़ने से रोकने के मामले में कांग्रेस में तो अशोक गहलोत की ताकतवर रणनीति और राजनीतिक कौशल के सामने उनका आलाकमान मजबूर भी संभव है, जैसा कि जानकार कहते भी हैं, लेकिन बीजेपी में तो मोदी और शाह के समक्ष किसी भी तरह की कोई मजबूरी नहीं है। फिर भी पायलट की तरह ही वसुंधरा भी दरकिनार है। राजस्थान में धीरे धीरे यह मान्यता बनती जा रही है कि वसुंधरा अब अगर मुख्यधारा में आ भी जाए, तो भी कोई बड़ा तीर नहीं मार पाएगी, क्योंकि चुनाव तो मोदी के नाम पर ही होना है। इसीलिए, पायलट समर्थक भी थक गए हैं और उनको भरोसा बैठ गया है कि गहलोत के कांग्रेस में ताकतवर रहते हुए पायलट का कांग्रेस में मुख्यधारा में आना आसान नहीं है। सही है कि दोनों के दरकिनार होने के अपनी अपनी पार्टियों को राजनीतिक नुकसान तो हैं, लेकिन नेतृत्व अगर नुकसान झेलने का ही मन बना चुका हो, तो को कोई कर भी क्या सकता है, आप ही बताईये।