राजस्थान की राजनीति के राज!
त्रिभुवन
राजस्थान की राजनीति की राहें बहुत रेतीली और रपटीली हैं। यहाँ मामूली सी हवा चलती है तो टीले अपने आपको खिसका लेते हैं। आपने रात को किसी सुंदर टीले की शीतलता का चाँदनी रात में एहसास किया होगा। वह आपके ज़ेहन में पैठ जाएगा। आप सुबह उसे देखेंगे तो वह तप रहा होगा और आपके पाँव जला रहा होगा। कांग्रेस के नेताओं के लिए भी यहाँ रास्ते कठिन हैं और वे तपिश भरे भी। अभी तीन साल से यहाँ कॉंग्रेस सत्ता में है; लेकिन लगता है, न कोई सुकून है और न कोई साया। मृतप्राय हाइकमान में थोड़ा जुम्बिश हुई है। मीडिया के कुछ लोग दिल्ली से बताते हैं कि हाइकमान अब हरकत में आ गई है। अब पुराने दिन लद गए। लेकिन उन्हें यह मालूम ही नहीं कि काँग्रेस हाईकमान को नींद में चलने की बीमारी है। इस हाइकमान को संतुलन कम साधना आता है और वह नई रार ठानने के मौक़े अधिक मुहैया करवाती है। कमान न किसी समूह के हाथ है और न किसी एक के। वहाँ लोकतांत्रिक सोच का भी अभाव है और पुराने राजसी अंदाज़ वाली इंदिरा गांधी जैसी ठसक-ठुमक भी नदारद है। राजस्थान की सियासत की जो मरहम पट्टी की गई है, वह अपने आपमें बहुतेरे दर्द समेटे है। इस इलाज ने दोनों खेमों की न दूरियां कम की हैं और न दोनों को प्रसन्न ही किया है। हाइकमान ने राजस्थान काँग्रेस के कंठ में एक ऐसी सिसकी छोड़ दी है, जो चुनाव के आते-आते क्रोध भरी कलप का रूप ले लेगी। प्रदेश की सर्द और धूप भरी ज़मीन पर खड़े नेताओं के दिलों में डाह पहले ही कम नहीं है। यह सामान्य सी बात है कि धूप में शिद्दत बढ़ गई हो तो साए अच्छे लगते हैं; लेकिन कांग्रेस में बात उलट है। यहाँ सायों से मुहब्बत कम और रश्क कहीं अधिक है। इस प्रदेश में कांग्रेस की सियासत का एक असहज सच भी है। और वह यह है कि यहाँ की रेतीली हवाओं में सियासत बहुत अधिक है और यहाँ नए फूलों का बिखरना मुकद्दर सा है। यह एक लंबे समय से है। कांग्रेस के लोग ऐसे हैं कि वे सब एक राह के मुसाफ़िर होकर भी एक-दूसरे के ख़ेमों को जलाए रखने में आनंदित रहते हैं। कई बार तो यह राजनीति करते-करते उनकी उंगलियां इतनी बेचैन हो जाती हैं कि वह अपनी ही आँखें फोड़ लेने तक से गुरेज नहीं करती।
बड़े नेता उद्धत, उतावले और विद्रोही तेवर वाले (तीन प्रकार के) प्रतिद्वंद्वियों के प्रति क्रूर हों, यह समझ आता है; लेकिन हैरानी तब होती है, जब कई बार वे अपने ही हाथों और अपनी ही गोद में खिलाए तेजस्वी लोगों को देखकर असंयमित हो जाते हैं। यहाँ तक कि कभी दो बार हार जाने के समीकरण बनाकर उनका टिकट काट दिया जाता है तो कभी विरोधी खेमे में चले जाने से कोपभाजन बना दिये जाते हैं! विधानसभा चुनाव में दो बार हारों का टिकट कटा और उप चुनाव आया तो तीन बार हारे को घर से बुलाकर उम्मीदवार बनाने में संकोच नहीं किया गया। अद्भुत पार्टी है! इसके नेता कभी किसी के जन्म पर मृत्यु का मंत्र पढ़ते हैं और मृत्यु के समय जन्म का मंत्र पढ़ दें तो हैरानी नहीं! राजस्थान में पिछले दो दशक में आए अधिकतर नेता मुँह पर ही नहीं, अपनी आँखों पर भी मौन की पट्टी बांधकर रखते हैं। उन्हें मालूम होता है कि यहाँ सियासी यात्रा बहुत लंबी और मुश्कलों भरी है। वे जानते हैं कि यहाँ एक दूसरे के पांवों को ज़ख़्मी करने का आनंद लेने वाला नेतृत्व प्रदेश की राजधानी ही नहीं, देश की राजधानी में भी है। ताज़ा मंत्रिमंडल विस्तार किसी घुटे नेता की जादूई सिंफनी है। यह वाक्य कुछ हैरानीजनक लग सकता है; लेकिन इसे समझना हो तो यह राजस्थानी किस्सा पर्याप्त होगा कि माँ से खिलौना माँगते बच्चे ने तोड़फोड़ शुरू की तो उसने उसे आळे में बिठा दिया और बड़बड़ाते हुए काम जुट गई। बच्चे ने कुछ देर देखा और फिर खिलौने को भूल गया और आळे से नीचे उतारने के लिए रोने लगा। माँ ने कुछ देर बाद उसे आळे से उतार दिया। बच्चा भी प्रसन्न और माँ भी। माँ प्रसन्न कि खिलौना दिए बिना हठी बालक को मना लिया। बच्चा प्रसन्न कि आळे से उतर गया! मंत्रिमंडल विस्तार इसी चालाक माँ, हठी बच्चे, दुष्ट आळे और न दिए गए खिलौने की कहानी भर है।
आपको यह देखकर हैरानी होगी कि पार्टी के प्रदेश कार्यालय के बाहर एक दिन पहले तक मुख्यमंत्री का कोई पोस्टर या बैनर तक नहीं है। आज भी नहीं है। एक दिन एक हॉर्डिंग लगा और वह हट भी गया। बाकी सब नेताओं के हैं। यह तब है, जब संगठन का नेतृत्व मुख्यमंत्री खेमे के ही पास है; लेकिन बिना किसी पोस्टर या बैनर के अगर कोई चेहरा है तो यहाँ वही है। समझने की बात ये है कि लोग रोज़ के हैंगओवर में फंसे रहते हैं और कोई है जो सिर्फ़ अर्जुन की तरह एक ही निशाने में। प्रदेश से बाहर पार्टी के युवा चेहरे सचिन पायलट का एक आकर्षण है। किसी को यह सच, किसी को परसेप्शन और किसी को उनके मीडिया मित्रों का करिश्मा लगता है। इन तीनों स्थितियों में उनके तरह-तरह के प्रशंसक हैं। मीडिया में अलग, लोगों में अलग, प्रदेश से बाहर अलग। लेकिन क्या काॅंग्रेस अपने फैसले इसी आधार पर करती है? आप स्पैनिश में कहते हो, हाईकमान हिब्रू में सुनता है। आप सोचते हैं, हाइकमान इटैलियन में सुनकर फैसला करती है, पता चलता है, वह सिर्फ़ अरबी में पढ़ना जानती है। इसके सामने कोई चुप्पी में मारा जाता है और किसी को हो-हल्ला करने पर हाईकमान हथकड़ी लगा देता है। एक चुनाव में कहा जाता है कि बारहखड़ी सुनाने वालों को टिकट दिया जाएगा और अगले चुनाव में बताया जाता है कि जो सौ तक गिनती सुनाएगा उसे ही टिकट देंगे। आप पहाड़े याद करके आए, टिकट वितरण में चयन सिमिति ने तय किया कि इस बार आधार अंताक्षरी में कामयाबी रहेगा! पार्टी कभी फार्मूला बनाती है कि इस बार जो मंत्र शुद्ध सुनाएगा, उसे मंत्री बनाया जाएगा; लेकिन जब नाम आए तो पता चला कि चयन उसका हो गया, जो आयातें बलबला सकता था। अब आप उनका हाल देख सकते हैं, जो बिथोवन बनकर आए थे और बहरा हाइकमान उनकी पीठ लगातार थपथपा रहा था।
जैसे वसुंधरा राजे के पहले मुख्यमंत्री काल में सदन के भीतर के परिदृश्य को याद करें और उस समय के उन चार नेताओं को याद करें, जो उस समय हल्दीघाटी के प्रताप बने हुए थे, आजकल अपने चेतक जैसे सपनों की मृत्यु से विह्वल घास की रोटी खा रहे हैं। उनके पास सूखे स्वाभिमान की कहानी के अलावा सत्ता का कौनसा सूत्र है? क्या अब आगे ऐसा नहीं होगा? आठ साल पहले भी कुछ ऐसा ही हुआ था। तब वसुंधरा-2 सरकार थी। तब किसी के हाथों में दूध का कटोरा था, जिसे चुनाव के बाद जब 200 में से 100 सीटें कांग्रेस की आईं तो धुंधवाती सियासी चिमनी में दिन ढलते-ढलते हवा उलटा गई। यह वही हवा थी, जो टीले को यहाँ से वहाँ खिसका देती है। उस दिन पायलट प्रेमी लोगों की ख़बर ढूंढ़ती बड़ी-बड़ी आँखें झीलती हक़ीक़त की कुंदनिया दुनिया से अँसुवा गई थीं। उनके अपने ही हर्फ़ अगियाई हुई हवा ने झुलसा डाले। इसकी एक वजह शायद दिल्ली भी है, जो अपने राजकुमार के सामने नए प्रतिद्वंद्वी पैदा होने से डरती है। इसे आप सियासत में शशि थरूर के सुरूर से भी बख़ूबी समझ सकते हैं!
दरअसल, रेगिस्तानी सरज़मीं पर जो ख़ूबसूरत फूल अभी ठीक से खिले भी नहीं थे, वे ख़ुशबू का हिसाब करने की मुद्रा में आ गए थे। इस प्रदेश में अगेती और पछेती फसलें तो होती हैं, लेकिन जल्दबाज़ी में बोई गई फ़सलें लहलहा नहीं पातीं। सियासी सपनों की लहर का हाल भी कुछ ऐसा ही है। और आप मानें या न मानें इस प्रदेश की हक़ीक़त यही है कि आप जहाँ-तहाँ देखेंगे, आपको कोई पुराना खेजड़ा ही अपने आपको टिकाए मिलेगा। वह जैसा भी है। वह ऊंट, बकरी, भेड़ आदि राजस्थानी जानवरों को भी खुश रखता है और अपना अस्तित्व भी यथावत बनाए रखता है। राजस्थान की मरुभूमि में आप फ़ारस के चैत्री ग़ुलाबों को कितना ही लगाओ, वे लग भी गए तो किसी ख़ास इलाके में लगेंगे; लेकिन खेजड़ा हर जगह बिना लगाए उग आएगा और हर हाल में अपने आपको बनाए रखने में कामयाब रहता है।
ताज़ा मंत्रिमंडल विस्तार की कहानी काफी कुछ पायलट और गहलोत के अप्रिय रिश्तों से जुड़ी है। आप परिदृश्य देखेंगे तो एक समूह पायलट को इस विस्तार के बाद विजेता की तरह प्रस्तुत कर रहा है और दूसरा कह रहा है कि गहलोत ही सब कुछ हैं। इस सरकार के बनने से पहले हवाओं में यही था कि पायलट को मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। लेकिन गहलोत ने बाज़ी उलट दी। यह स्थिति कुछ वैसी थी, जिसे कहा जाता है कि फूलों का बिखरना तो मुकद्दर ही था, हवाओं में सियासत की गर्द बहुत थी। और ये हवाएं वाकई रेतीले प्रदेश की थीं। ऐसे में सियासी हिसाब-किताब करने वाले उन चार नेताओं को भूल जाते हैं, जिन्होंने वसुंधरा राजे के पहले कार्यकाल में अपनी तेजस्विता दिखाई थी और उनमें से दो तो आज पूरे परिदृश्य से नदारद हैं। तब लगता था कि इन प्रखर और मुखर नेताओं के भीतर भविष्य की कॉंग्रेस बसती है। सीपी जोशी के वे पैने बेधक प्रहार, संयम के सत्ता को झकझोर देने वाले साहसिक हमले, हरिमोहन का ज़मीनी काम और सीएस वैद्य जिस नफ़ासत से सर्जरी करते, वह अविस्मरणीय है। अब बताओ, ऐसी पार्टी भी है इस देश में और पूरे ठसक से है। अगर कोई दल अपनी ऊर्जावान प्रतिभाओं के साथ इस तरह का व्यवहार करता है तो आप क्या मानेंगे? उसे जिस तरह के लोगों को तलाश कर लाना चाहिए, उन्हें वह अगर नष्ट करने पर आमादा रहती है तो आप सोच सकते हैं कि इस देश में और इस प्रदेश में नरेंद्र मोदी की, भाजपा की और आर एस एस की दुंदुभि क्यों बज रही है? फिर भी कॉंग्रेस एक बड़ी और महान पार्टी है। सच ही कहा जाता है कि भारत में बादशाहों के मरे हुए हाथी भी सवा लाख के होते हैं। तो यह मंत्रिमंडल विस्तार भी बदन झुलसा देने वाली लू की कहानी को अपने में समेटे है। यहां बहुत नेता आए हैं, जिन्हें रेत में सोना ही सोना नज़र आया; लेकिन ज़मीन इन्कार के नशे में गुम हो गई।
राजस्थान में आठ साल पहले पायलट को इस अभियान के तहत कमान सौंप कर भेजा गया था कि प्रदेश को एक नया नेतृत्व देंगे। उस समय भी हाइकमान और अशोक गहलोत के रिश्ते बिलकुल अच्छे नहीं थे। यह वह दौर था, जब अभी के विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी पार्टी नेताओं के लिए रश्के-क़मर बने हुए थे और गहलोत आँख की किरकिरी। वजह भी थी। उस समय उनकी सरकार हारी और 200 सीटों में से कांग्रेस को मिलीं महज 21 सीटें। इस समय हालात ऐसे थे कि सचिन पायलट के सिर पर से सहसा हुमा पक्षी उड़कर निकल गया था यानी उनके लिए और मुझ जैसे कम सियासी समझ वाले आम इन्सान के लिए उनके सत्तासीन होने में कोई शकोशुबह न था। पुराने समय में बादशाहत का यही शगुन था। और इतना ही नहीं, यह परिंदा उनके लश्कर के आगे आवाज़ें लगाता हुआ चल रहा था। पांच साल बीते। चुनाव हुए। नतीजे आए और एक सुहानी सुबह वह शहर जला हुआ सा मिला, जहाँ सत्तासीन होना था। और अब तक जो सियासी शब में खड़ा था, उसके लिए जाने किस आंगन से होती हुई ख़ुशबू आई और वह फूल के फूल से खिला गया। यह एक तरह से रेगिस्तानी बंजर में खेजड़े पर फूल खिलने और टीलों के बीच गुलिस्तान बनने जैसा घटनाक्रम था। अब इसकी बहुत सी कहानियां और बहुत सी व्याख्याएं हैं और इसके ढेरों मिथक खड़े हैं। आने वाले समय में भाजपा में भी यही इतिहास दुहराया जाए तो हैरानी नहीं! नए मंत्रिमंडल विस्तार को समझने के लिए राजस्थान की सियासी इबारतों को पढ़ने से पहले कुछ चीज़ों को देखना-समझना जरूरी है। सार इतना सा है कि एक नया चेहरा लगातार वाचाल रहा और खुले में वाचाल रहा। सियासत के पुराने खिलाड़ी चुप रहे और उनकी सियासत ने भी होंठ सिए रखे। इसका नतीजा यह निकला कि प्रदेश की सियासत का न पैरहन बदला और न लिबास। सरकार बदली, लेकिन मंजर वही रहा। आज हालात ये हैं कि पायलट न उपमुख्यमंत्री हैं और न प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष। लेकिन उनके साथ उम्र है और अभी वे महज 44 साल के हैं। वे राहुल गांधी से सात साल छोटे हैं और अशोक गहलोत से 26 साल। यह बहुत बड़ी बात है। उम्र के इसी आंकड़ें में उनके भविष्य की संभावनाएँ छिपी और सिमटी हैं।
अशोक गहलोत पॉलिटिकल ऐंम्ब्रॉइडरी में निष्णात हैं। वे सर्द शाम में ठिठुरते हुए लू लगने का बोध करवा सकते हैं और बदन झुलसाती लू के बारे में एहसास करवा सकते हैं कि शीतलहर कैसे कंपा रही है। वे हाइकमान की इच्छाओं का बहुत ख़याल रखते हैं। हर बार देखने में आता है कि वे प्रतिद्वंद्वियों से सीधे कम और उनके प्रतिद्वंद्वी दोयम दर्जे के नेताओं से तूतूमैंमैं में उलझे रहते हैं। लेकिन पहला मौका था जब तनाव में भाषा संबंधी मर्यादा और संयम दरके। राजस्थान की सियासी हवाओं में बजबजाती धूल घुल गई! इन परिस्थितियों के बाद अब हुए मंत्रिमंडल विस्तार में दोनों खेमे प्रसन्न हैं; लेकिन एक बड़ा बदलाव यह है कि जहां आजादी के बाद कांग्रेस के शुरुआती चार मंत्रिमंडलों में एक भी एससी-एसटी या महिला प्रतिनिधि नहीं था, वहाँ इस बार पांच एसटी, चार एससी और तीन महिला मंत्री हैं। यह पहला मौका है जब उच्च जातियों के नेताओं को मिलने वाले विभाग एसटी-एससी और महिलाओं को मिले हैं। उद्योग विभाग की कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि यह एक गुर्जर महिला और चिकित्सा तथा स्वास्थ्य आदिवासी को जाएगा।
कांग्रेस अपने लिए बेहतर भविष्य तलाश करना चाहती है तो उसे अपने वर्तमान और भविष्य के बीच संतुलन और सहजता कायम करनी होगी। वह इन दोनों को आपस में लड़ते रहने देगी तो उसके खेत पानी को तरसते रहेंगे और रेतीले टीले बिना बादलों के भी मुस्कुराना नहीं छोड़ेंगे। कांग्रेस नेतृत्व को समझना होगा कि वह अपने बेचैन और जल्दबाज़ युवाओं की धड़कनों को भी सुने और उन्हें संयमित रखे। वह अपने पुराने नेताओं के लिए और बेहतर जगह दे और केंद्रीय सत्ता के रनिवासे को गांधी-नेहरू परिवार उसे क्षेत्रीय प्रतिभाओं के लिए खोल दे। वह खु़द आरएसएस प्रमुख की तरह की भूमिका में रहे तो रहे। लेकिन बड़े नेताओं के लिए अगर दिल्ली में बेहतरीन जगह नहीं होगी तो उसके चेसबोर्ड पर बड़े-बड़े पासे इसी तरह रेंगते रहेंगे। उसे चाहिए वह किसी भी झूठे सत्य की तलाश में नहीं भटकाए और पार्टी के भीतर एक लोकतांत्रिक वातावरण कायम करे। गांधी-नेहरू परिवार अगर पार्टी की सियासत को एक तनी हुई रस्सी बनाए रखेगा तो वह पार्टी में संतुलन कायम करने वाले नटों की भीड़ ही पैदा करेगा। वह भविष्य के लिए सबसे काबिल नेताओं को नहीं उभार पाएगा। नटों की भीड़ मोदी का मुकाबला नहीं कर सकती। उसके मुकाबले के लिए उसी स्तर का वैसा ही नेता चाहिए। पार्टी हाईकमान को यह सच स्वीकार करना चाहिए कि जब शरीर-झरनों पर चाँदनी उतरती है तो वह लहर-लहर किरनों को छेड़कर गुज़रती है। वह न तो किसी को इतने रतजगे दे कि इन्सान नींद के लिए किसी का भी बिछौना ढूंढ़ता फिरे और न वह सियासत में अपने आपको नफ़ासत से बचाए और धमक रखने वाली प्रौढ़ाओं की गर्दनों को जख़्मी करे! कॉंग्रेस के भीतर अपने भविष्य को तलाश रही नाम-अनाम प्रतिभाओं को समझना होगा कि इस दल की सियासत में आग और तपिश दरअसल ऑक्सीज़न और फ़्यूल के महज मिल जाने भर से पैदा नहीं होती। गांधी-नेहरू परिवार को 1919 से ही ऐसे रणनीतिकार प्रिय रहे हैं, जो ऑक्सीज़न और पानी मिलाकर आग बनाना और अंगारे और काठ मिलाकर आग बुझाना जानते हों!
(लेखक हरिदेव जोशी विश्वविद्यालय में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं)