Rajasthan News: राजस्थान में कांग्रेस (Congress) को सत्ता से रुखसत हुए लगभग डेढ़ साल का वक्त बीत रहा है और सचिन पायलट (Sachin Pilot) को राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री दोनों पदों से बर्खास्त हुए 5 साल। अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) अब पूर्व मुख्यमंत्री हैं, और सचिन पायलट राजस्थान में सिर्फ विधायक। गोविंद सिंह डोटासरा (Govind Singh Dotasara) पायलट की जगह 5 साल से प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। कांग्रेस को सत्ता में लौटने के लिए अभी साढ़े तीन साल प्रतीक्षा करनी है। लेकिन सचिन पायलट के समर्थक सोशल मीडिया पर अपने नेता को कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से भी ज्यादा लोकप्रिय और सक्षम बताने पर तुले हैं। पायलट समर्थकों के निशाने पर गहलोत और डोटासरा दोनों हैं। अशोक गहलोत के खिलाफ तो उनका गुस्सा तभी से है, जब वे 2018 में राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे और डोटासरा पर भी 5 साल से उनका गुस्सा फटता रहा है जब वे पायलट की बर्खास्तगी के बाद उनकी जगह पर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए थे। इस सबके बीच राजस्थान के राजनीतिक आकाश में आम तौर पर यह सवाल तैरता रहता है कि सचिन पायलट आखिर मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सके और आगे बी बन पाएंगे कि नहीं। इन दोनों सवालों के जवाब में कांग्रेस के कई अंदरूनी सवाल छिपे हैं, जिनके उत्तर कौन तलाशे, यही सबसे बड़ा सवाल हैं।
पायलट समर्थकों के निशाने पर अब भी गहलोत
सचिन पायलट अब अखिल भारतीय कांग्रेस के महासचिव हैं और छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रभारी भी। फिर भी, पायलट के मुख्यमंत्री ना बनने की कहानियां राजस्थान की हवा में तैरती रहती हैं। दरअसल, पायलट क्यों नहीं बन सके मुख्यमंत्री, इसके पीछे कई राजनीतिक और आंतरिक कारण रहे हैं, जिनके तार कांग्रेस पार्टी की रणनीति, नेतृत्व के फैसलों, अंदरुनी राजनीति और राजस्थान की जटिल जातिगत सियासत से जुड़े हैं। राजस्थान में प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री दोनों पदों से जुलाई 2020 से बर्खास्त होने के बाद से पायलट के पास प्रदेश में जुलाई 2020 से ही कोई पद नहीं है। मुख्यमंत्री ना बनने के कारण पायलट नाराज, अनमने और लगभग निराशा में डूबे रहे और उनके हताश समर्थक 2018 से गहलोत विरोध के नाम पर कांग्रेस की कब्र खोदते रहे। बीच इसी कारण कांग्रेस में टकराव भी बढ़ता गया। वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन ने बीबीसी पर लिखा कि कांग्रेस ने अपनी युवा और पुरानी पीढ़ी के बीच समन्वय स्थापित किया होता तो ज़मीनी स्तर पर पार्टी की हालत बेहतर होती। लेकिन हाईकमान और उसके प्रभारियों ने कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। वे प्रदेश के ताक़तवर नेता अशोक गहलोत और भविष्य की उम्मीद माने जा रहे सचिन पायलट के बीच खाइयां बढ़ने देते रहे। सार्वजनिक तौर पर पायलट के कुछ भी न बोलने के बावजूद उनके समर्थकों में आज भी यह मलाल है कि अशोक गहलोत ने पायलट का हक छीन लिया था और उनका नेता मुख्यमंत्री पद नहीं पा सका, जिस पर उसका अधिकार था।

अपनी ही सरकार के विरोध में खड़े हो गए थे पायलट
राजस्थान में 2018 में सचिन पायलट के मुख्यमंत्री न बनने में उनका राजस्थान की राजनीति का अनुभवी न होना, बहुत जूनियर होना और जातिगत समीकरणों में फिट न हीं बैठने सहित बहुमत बहुत कम मार्जिन वाला होने सबसे पहली दीवार बने। गहलोत पहले भी दो बार (1998-2003 और 2008-2013) में राजस्थान के सफलतम मुख्यमंत्री रह चुके थे। उनके पास लंबा प्रशासनिक अनुभव था, और कांग्रेस आलाकमान ने इसे प्राथमिकता दी। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार मानते हैं कि पायलट उस समय अपेक्षाकृत बहुत युवा थे, सिर्फ 40 साल के और मुख्यमंत्री के रूप में अनुभव गहलोत की तुलना में बिल्कुल नहीं था। इसी कारण उनकी वफादारी और पार्टी में लंबे समय तक काम करने के रिकॉर्ड को देखते हुए राहुल गांधी और सोनिया गांधी सहित कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने गहलोत को तरजीह दी। परिहार कहते हैं कि पायलट को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के बावजूद उपमुख्यमंत्री बनाकर संगठन व सत्ता में संतुलन बनाने की कोशिश की गई, लेकिन यह पहले दिन से ही स्पष्ट था कि उप मुख्यमंत्री होने के बावजूद पायलट स्वयं को मुख्यमंत्री गहलोत के मुकाबले ज्यादा प्रभावी साबित करने की कोशिश करते दिख रहे थे। वे अपना राजनीतिक आचरण छुपा नहीं सके और धीरे धीरे वे प्रकट तौर पर अपनी ही सरकार के विरोध में खड़े हो गए, और अपने ही मुख्यमंत्री गहलोत को निशाने पर लेते रहे। वे 21 विधायकों को लेकर बगावत के लिए निकले, लेकिन सरकार गिराने में असमर्थ रहे, तो कांग्रेस आलाकमान ने उनको पार्टी विरोध गतिविधियों के आरोप में उपमुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस दोनों पदों से बर्खास्त कर दिया था।
राजस्थान में हर पांच साल में सरकार बदलने का रिवाज
राजनीति में वैसे तो, हक नाम की कोई चीज होती ही नहीं है, फिर भी पायलट और उनके समर्थकों का तर्क है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव के सन 2018 में कांग्रेस ने पायलट के नेतृत्व में जीत हासिल की थी, इसलिए मुख्यमंत्री पद पर उन्हीं का हक था। राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार हरिसिंह राजपुरोहित कहते हैं कि राजस्थान में तीन दशक से हर पांच साल में वैसे भी सरकार बदलने का रिवाज रहा है और कांग्रेस पूरी मजबूती से सत्ता में लौटने की तैयारी में ही थी। राजपुरोहित कहते हैं कि निश्चित तौर से प्रदेश अध्यक्ष के नाते पायलट ने पार्टी को मजबूत करने और युवा चेहरे के रूप में चुनाव प्रचार में अहम भूमिका निभाई। लेकिन पायलट समर्थकों का मानना था कि केवल उनकी मेहनत की वजह से ही कांग्रेस सत्ता में लौटी। जबकि, मेहनत तो सभी नेहर स्तर पर की थी, फिर भी कांग्रेस बहुमत के किनारे पर ही पहुंच सकी थी।

जातिगत राजनीति के समीकरण में कांग्रेस अनफिट
पायलट के मुख्यमंत्री बनने की कई कोशिशों के बावजूद 2018 में कांग्रेस आलाकमान की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए अशोक गहलोत को चुना गया। इसके पीछे कुछ प्रमुख कारणों की व्याख्या करते हुए राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार कहते हैं कि राजनीतिक वरिष्ठता, अल्पमत की सरकार सम्हालने का अनुभव, सत्ता संतुलन, विधायकों के संख्या बल का समर्थन, आंतरिक गुटबाजी और राजनीतिक परिपक्वता। पायलट के बारे में इसी कारण आलाकमान ने कोई विचार ही नहीं किया और गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया, जिन्होंने दूसरी पार्टियों के विधायकों को साथ लेकर निर्दलियों के सहयोग से समर्थन जुटाकर पूरे पांच साल तक कांग्रेस की सरकार चलाई। जबकि अल्प अनुभवी और प्रादेशिक राजनीति की गहरी समझ न होने के कारण पायलट ऐसा कर लेते, इसकी संभावना बहुत ही कम मानी जा रही थी। वरिष्ठ पत्रकार हरिसिंह राजपुरोहित कहते हैं कि पायलट पर गुर्जर जाति से होना भी उनके आड़े आया। क्योंकि कांग्रेस आलाकमान को आभास था कि राजस्थान में जाट, राजपूत, मीणा और अन्य जातियां किसी गुर्जर को मुख्यमंत्री पद पर स्वीकार नहीं करेगी, क्योंकि आक्रामकता और जातिगत समीकरणों के मामले में गुर्जरों को राजस्थान की कांग्रेसी राजनीति में सदा से ही ही फूट का कारण माना जाता रहा है।

जातिगत समीकरणों में उलझी कांग्रेस की राजनीति
राजस्थान की जातिगत राजनीति के समीकरणों की व्याख्या करते हुए राजनीतिक विश्लेषक परिहार कहते हैं कि प्रदेश में यह आम मान्यता है कि राजनीति में मीणा, गुर्जरों को पसंद नहीं करते, और जाट – राजपूतों में कितना भी टकराव हो, गुर्जरों के खिलाफ वे दोनों एक होते हैं, तो मीणा भी उनके साथ आ जाते हैं। ऐसे में किसी गिर्जर नेता का मुख्यमंत्री बनना संभव ही नहीं था और आगे भी इसकी कम ही गुंजाइश है। खासकर, सचिन पायलट के मामले में तो डर यह भी है कि वे उत्तर प्रदेश के हैं, और राजस्थान के नेताओं में यह बात घर कर गई है कि उन्होंने और उनके माता पाति ने राजस्तान को केवल चुनाव लड़ने की साधन बना रखा है, इसीलिए प्रदेश में जाट, राजपूत और मीणा उनके मुख्यमंत्री बनने में कभी भी आड़े आ सकते हैं।
पायलट के अड़ियल रुख ने कांग्रेस को कमजोर किया
दरअसल, राजस्थान कांग्रेस में आंतरिक गुटबाजी पायलट के अध्यक्ष रहते हुए हर स्तर पर कुछ ज्यादा ही रही। सत्ता सम्हालने के मामले में कांग्रेस में गहलोत और पायलट के बीच शुरू से ही तनाव रहा। पायलट को मुख्यमंत्री न बनाने की कांग्रेस की रणनीतिक सोच के मामले में देखें, तो राजस्थान के जानकार राजनीतिक विश्लेषक सिद्धराज लोढ़ा का मानना है कि कांग्रेस ने पायलट को भविष्य के नेता के रूप में देखा और उन्हें तुरंत मुख्यमंत्री बनाकर जोखिम में नहीं डालना चाहा। कांग्रेस उनको एक असेट के रूप में उपयोग करना चाह रही थी। पार्टी मानकर चल रही थी कि सन 2023 के चुनाव में कांग्रेस के मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जाएगा, और इसीलिए शायद आलाकमान ने सोचा हो कि पायलट की छवि को बचाकर रखना बेहतर होगा। हालांकि, इन सबके बावजूद पायलट के समर्थकों का मानना है कि उन्हें मौका नहीं दिया गया, जबकि गहलोत के समर्थकों का तर्क है कि अनुभव और स्थिरता के लिए गहलोत सही विकल्प थे। यह कांग्रेस की आंतरिक राजनीति का एक जटिल उदाहरण है, जहां व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, गुटबाजी और रणनीति ने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया। तो, पायलट के अड़ियल रुख और स्वयं को सिद्ध करने की मंशा ने पूरी कांग्रेस को ही राजस्थान में कमजोर कर दिया। गहलोत समर्थक गोविंद सिंह डोटासरा प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर पार्टी को ताकतवर बनाने में जुटे हैं, लेकिन लगता है कि उनको अभी और बहुत वक्त लग सकता है, क्योंकि उन्हीं की पार्टी के नेता ही कांटे बोने में कमी नहीं रख रहे।
-राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार)
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