Hindu-Muslim: धार्मिक पहचान की राजनीतिक कोशिशों ने भारतीय समाज में हिंदू-मुस्लिम (Hindu-Muslim) संबंधों को जबरदस्त प्रभावित किया है। भारत में कुछ साल पहले तक, केवल भारतीय उपमहाद्वीप यानी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ही अक्सर हिंदू और मुस्लिम आबादी के बीच हिंसा और तनाव की खबरें सामने आती रही हैं, लेकिन अब यह बवाल दुनिया के कई देशों तक फैल गया है। वैसे, तो मुद्दे कई तरह के होते हैं, जिनका सीधा संबंध राजनीति और समाज से ही रहा होता है। लेकिन धर्म के मुद्दे का भी हर स्तर पर राजनीतिकरण हो चुका है, तो अब सत्ता की सीढ़ियां भी इसी से नापी जाने लगी है। कुछ महीनों से बांग्लादेश में हिंसा की जो आग शुरू हुई, उसके पीछे वजह आरक्षण था, धर्म से इस विवाद का कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन मंदिर तोड़े गए और हिंदुओं पर अत्याचार हुए, तो मामला धर्म से जुड़ गया। भारतीय समाज में हिंदू-मुस्लिम विवाद का मुद्दा आज कोई नई बात नहीं है। यह एक ऐसा घाव है जो समय-समय पर उभरता रहा है और आज भी इसके निशान समाज के ताने-बाने में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। यह तनाव केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया के कई देशों में भी हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच संघर्ष देखने को मिलता है। भारत में इसकी जड़ें इतिहास में गहरे तक जाती हैं, जहां इस्लामिक आक्रांताओं के अत्याचारों ने लोगों के मन में भय और अविश्वास पैदा किया। वर्तमान में धार्मिक कट्टरता, राजनीतिक हस्तक्षेप और सामाजिक विद्वेष इस विवाद को और बढ़ावा दे रहे हैं।

हिंदू-मुस्लिम विवाद की जड़ें ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में
भारत का इतिहास इस्लामिक आक्रांताओं के आगमन से पहले और बाद में बंटा हुआ प्रतीत होता है। मध्यकाल में कई विदेशी आक्रांताओं जैसे महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी और बाद में मुगल शासकों ने भारत पर आक्रमण किए। इन आक्रमणों के साथ मंदिरों का विध्वंस, जबरन धर्मांतरण और स्थानीय आबादी पर अत्याचार की घटनाएं भी जुड़ी हैं। इन घटनाओं ने हिंदू समुदाय में एक गहरा आक्रोश पैदा किया, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। हालांकि, यह भी सच है कि सभी मुस्लिम शासक एक जैसे नहीं थे। अकबर जैसे शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया, लेकिन औरंगजेब जैसे शासकों की कट्टर नीतियों ने इस खाई को और गहरा कर दिया। आजादी के बाद भी यह ऐतिहासिक घाव पूरी तरह नहीं भरा। विभाजन के दौरान हुए दंगे और लाखों लोगों का विस्थापन इस बात का प्रमाण है कि धार्मिक आधार पर बंटवारा कितना विनाशकारी हो सकता है। इस इतिहास ने दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की एक दीवार खड़ी कर दी, जिसे तोड़ना आज भी मुश्किल बना हुआ है।

धार्मिक कट्टरता का जवाब कट्टरता से मिल रहा है
हिंदू-मुस्लिम विवाद को बढ़ाने में धार्मिक कट्टरता की बड़ी भूमिका है। एक ओर कुछ मुस्लिम समूहों में कट्टरपंथी विचारधारा का प्रभाव बढ़ा है, जिसके कारण वे अपने धार्मिक नियमों को दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं। इसका असर हिंदुओं में भी देखने को मिलता है, जहां जवाबी कट्टरता बढ़ रही है। यह एक चक्र की तरह है—एक समुदाय की कट्टरता दूसरे समुदाय को और कट्टर बनाती है। उदाहरण के लिए, लव जिहाद जैसे मुद्दों पर दोनों पक्षों के अतिवादी समूह अपनी-अपनी बात को लेकर हिंसा तक उतर आते हैं। पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश में हिंदुओं पर अत्याचार इसका एक और उदाहरण है। वहां हिंदू आबादी लगातार कम हो रही है। हजारों परिवारों ने धार्मिक उत्पीड़न के कारण देश छोड़ दिया है। मंदिरों पर हमले, जबरन धर्मांतरण और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की खबरें अक्सर सामने आती हैं। यह स्थिति भारत में हिंदुओं के बीच आक्रोश को और बढ़ाती है, क्योंकि वे इसे अपने समुदाय के खिलाफ एक वैश्विक साजिश के रूप में देखते हैं।

वोट बैंक की राजनीति का परिणाम है ध्रुवीकरण
भारत में हिंदू-मुस्लिम विवाद को बढ़ाने में राजनीति का सबसे बड़ा हाथ रहा है। आजादी के बाद कांग्रेस ने ‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई’ का नारा दिया और दोनों समुदायों में एकता की बात की। लेकिन कई लोगों का मानना है कि कांग्रेस एक तरफ तो समानता की बात कहती रही, लेकिन उसने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनाई, जिसके कारण हिंदुओं में असंतोष बढ़ा। उदाहरण के लिए, हाल ही में कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने सरकारी ठेकों में मुस्लिम समुदाय के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की, जिसे हिंदू नेताओं ने भेदभावपूर्ण बताया। दूसरी ओर, मुस्लिम धार्मिक नेताओं के भड़काऊ बयानों के उपद्रव भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। तो, और उनके जवाब में हिंदूवादी संगठनों के जवाब आने भी तय है। मुसलमान नेताओं का खुले तौर पर हिंदू विरोधी बातें कहना इस तनाव तो और बढ़ाता रहा है। यह राजनीतिक ध्रुवीकरण वोट बैंक की राजनीति का परिणाम है, जहां दोनों समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है। सोशल मीडिया ने भी इस विद्वेष को फैलाने में आग में घी डालने का काम किया है। फर्जी खबरें, भड़काऊ वीडियो और अफवाहें दोनों समुदायों के बीच नफरत को बढ़ाती हैं।
वैश्विक स्तर पर भी दोनों समुदायों के बीच अविश्वास
हिंदू-मुस्लिम तनाव केवल भारत की समस्या नहीं है। दुनिया के कई देशों में यह मुद्दा अलग-अलग रूपों में मौजूद है। इंग्लैंड में भी इस्लामिक कट्टरता के कारण कई जगहों पर दंगे देखे जाते रहे हैं, तो यूरोप में इस्लामिक कट्टरता और स्थानीय आबादी के बीच टकराव बढ़ रहा है। म्यांमार में रोहिंग्या मुस्लिमों और बौद्ध समुदाय के बीच हिंसा, या श्रीलंका में मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर हमले इसका उदाहरण हैं। भारत में रहने वाले लोग अक्सर सोचते हैं कि क्या यह विवाद कभी खत्म होगा। वैश्विक स्तर पर इस्लामोफोबिया और हिंदुओं पर हमलों की खबरें दोनों समुदायों के बीच अविश्वास को और गहरा करती हैं।

हिंदू-मुस्लिम विवाद समाज के लिए एक गंभीर चुनौती
इस समस्या का समाधान आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं। सबसे पहले, शिक्षा और जागरूकता के जरिए लोगों के बीच फैली गलतफहमियों को दूर करना होगा। धार्मिक नेताओं को आगे आकर सहिष्णुता का संदेश देना चाहिए। राजनीतिक दलों को वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर एकता पर जोर देना होगा। भारत में ‘अयोध्या तो झांकी है, काशी मुथुरा बाकी है’ जैसे नारे लगते रहे हैं। तो, आने वाले वक्त में मथुरा में कृष्ण जन्म भूमि पर बनी मसजिद को लेकर भी विवाद होना ही है, क्योंकि काशी विश्वनाथ मंदिर का विकास हो गया है और राम मंदिर बन चुका है। ऐ,े में कानून का सख्ती से पालन और भड़काऊ बयानों पर रोक लगाना भी जरूरी है। दोनों समुदायों के बीच संवाद बढ़ाने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम और सामुदायिक गतिविधियां आयोजित की जा सकती हैं। हिंदू-मुस्लिम विवाद भारतीय समाज के लिए एक गंभीर चुनौती है, जिसकी जड़ें इतिहास, धार्मिक कट्टरता और राजनीति में गहरे तक समाई हैं। यह न केवल भारत, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी एक समस्या बनी हुई है। इसे खत्म करने के लिए दोनों समुदायों को आपसी समझ और सहयोग की भावना के साथ आगे बढ़ना होगा। जब तक हम अतीत के घावों को भुलाकर भविष्य की ओर नहीं देखेंगे, तब तक यह तनाव कम नहीं होगा। यह समय की मांग है कि हम नफरत को छोड़कर शांति और एकता का रास्ता अपनाएं। क्योंकि आज सवाल धार्मिक एकता का नहीं, समरसता का भी नहीं, बल्कि धार्मिक कट्टरता को मिटाने का है, क्योंकि एक तरफ की कट्टरता दूसरी कट्टरता को बढ़ावा देती है, यही ऐतिहासिक सच है।
-निरंजन परिहार (राजनीतिक विश्लेषक)
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