अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर प्रतिष्ठा और मर्यादा के लज्जित चीरहरण में भी गर्व का माध्यम बने सोशल मीडिया का आचरण अपमानित करने लगा है। राह भटक चुके एक्स, यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सएप्प वगैरह शाश्वत रूप से शर्मनाक टिप्पणियों के संवाहक बने हुए हैं। इसिलए, देश, व्यवस्था और न्याय के लिए ये खतरे की घंटी माने जा रहे हैं।
निरंजन परिहार
बाली उमर में ही जब यह भान हो गया था कि हमारे हिंदुस्तान में हर क्षेत्र में अनर्गल प्रलाप करनेवाले, बड़बोले और बकवासी बहुत बडी संख्या में भरे पड़े है, और स्वतंत्रता सेनानी अपनी दादी मां से यह कहावत भी सुन रखी थी कि हाथी जब चलता रहता है तो कुत्ते उस पर भौंकते रहते हैं। इसलिए उसी दौर में यह लगभग तय सा कर लिया था कि बकवासियों पर लिखने में कभी अपना समय बरबाद नहीं करेंगे। मगर 10 साल से लगभग मरणासन्न मुद्रा में पड़े अपने ट्विटर अकाउंट को नए सिरे से सक्रिय करने को अंगूठा उठाया, तो जैसा कि मुहावरे में कहते हैं, अपनी नींद ही हराम हो गई।
अब, सबसे पहले तो एक विनम्र प्रार्थना कि वे लोग कृपया इस लेख को पढ़ना तत्काल बंद कर दें, जो इस देश के किसी भी व्यक्ति के आचरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भक्त तलाशने के दृष्टिदोष से ग्रस्त हैं। और वे भी यहीं रुक जाएं… बस यहीं पर, जिन्हें गोदी मीडिया और भक्त जैसी गढ़ी हुई उपमाओं से किसी को नवाजने में ही स्वयं की सार्थकता साबित करने का शौक हो। और दूसरी यह घोषणा कि अपना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से किसी भी तरह का दूर का भी कोई वास्ता नहीं है, कि अपन उनके हनुमान बनकर मैदान में ताल ठोकें। फिर भी अपन यह लिख रहे हैं, तो इसलिए, क्योंकि दिमाग दंग रह गया, आंखें अवाक रह गई और माथा ठनक गया। ट्विटर पर एक पूरी की पूरी जमात अत्यंत निर्लज्ज अंदाज में हर मामले में नरेंद्र मोदी को लगभग सूली पर चढाने से कम पर किसी भी हाल में मानने को तैयार ही नहीं है।
अब, जब तरफ कोरोना की वजह से देश ही नहीं दुनिया भर में हाहाकार मचा हुआ है, तो लोग हालात का कोई निदान बताने की बजाय समस्त संसार में संवाद के सार्वजनिक मंच के रूप में स्थापित हो चुके सोशल मीडिया पर सिर्फ धिक्कार मंत्र का जाप करने में लगे हैं। सोशल मीडिया झूठे सच और सच्चे झूठ की दंतकथाओ का नियमित रचनाकार बन गया है, जहां निष्पाप लोग भी अचानक गुनाहगार साबित करके सरेआम सूली पर लटका दिए जा रहे हैं। और एक जीते जागते मनुष्य की इज्जत कुछ ही देर में ट्रेंडिंग के आंकड़ों में तब्दील कर दी जाती है। वास्तविक जीवन में जिनकी असली औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, और जो अपने घर का किराया भी वक्त पर चुकाने की क्षमता से विहीन हैं, वे भी गली गंदगी के लिए भी सीधे मोदी को गाली दे रहे हैं। और मोदी अगर आहत भाव में रुंधे गले से बोल रहे हों, तो वे इसे ढोंग घोषित करने पर देते हैं।
एक्स, यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम और वाट्सएप्प वगैरह पर झूठ का यह धंधा धुआंधार धमक रहा है। और खास बात यह है कि यह विकृत आनंद उठाने वाले कोई सड़कछाप और साधारण लोग नहीं बल्कि टीवी और अखबारों में बरसों तक पत्रकारिता करके प्रसिद्धि पा चुके वे चेहरे ज्यादा हैं, जिनको जानने, मानने और पहचानने वालों की भी इस दुनिया में अच्छी खासी संख्या है। मगर हां, वे अपनी करतूतों की वजह से इन दिनों बदनाम हैं, और यह भी साफ है कि इस बदनामी को ही अब उन्होंने अपने जीवन की पहचान का श्रंगार बना दिया है। दरअसल ट्विटर, यूट्यूब, फेसबुक और वाट्सएप्प के ये कुत्सित, कुटिल, वाचाल और बदनामी की मानसिकतावाले वे चेहरे ज्यादा हैं, जो आजकल बाकायदा बेरोजगार हैं और जिन मीडिया संस्थानों में काम कर रहे थे, वहां पर अपनी मनमर्जी से बदनामी का एजेंडा चलाने की वजह से खदेड़ दिए गए है।
एक्स स्तरहीन फब्तियों और लज्जित भड़ास से भरा हुआ है। फेसबुक सामाजिक संवाद का फर्ज बिसारकर लोकतंत्र की लाज लूटने के चौराहे के रूप में सजा हुआ है। वॉट्सएप्प झूठ फैलाने का सरलतम सामान और यूट्यूब छोटे परदे से भी छोटा हर किसी पर कीचड़ उछालनेवाली स्क्रीन बना हुआ है। कहा जाना चाहिए कि शुरूआत से ही संवाद के सर्वाधिक सरलतम और सफलतम साधन रहे सोशल मीडिया को आज हमारे देश में इन चंद एजेंडाधारियों ने अपने निर्लज्ज आचरण का रंगमंच बना डाला है। इसी सोशल मीडिया पर स्वयं को स्वतंत्र घोषित करनेवाले एजेंडाधारी भेड़िये, सत्ता के विरोधियों की बात को निजी आक्रोश में गालियों से भी लगभग गई गुजरी भाषा में सत्ता को गरियाते हैं और उसे दोषी घोषित करते हैं। सोशल मीडिया पर स्वयं को सिद्ध करने का स्वांग रच रहे ये चंद चेहरे अघोषित विपक्ष की भूमिका के काम कर रहे है, और निश्चित तौर से इस धत्कर्म के बदले वे अच्छा खासा मेहनताना भी पा रहे हैं। यह सत्य वे ही लोग ही सबको बता रहे हैं, जो इनको मेहनताना बांट रहे हैं।
वैसे इस देश में ही नहीं बल्कि हमारे संसार में अक्सर यह होता है कि एक गर्व करने लायक नायक भी अचानक अपनी कल्पनाओं के लोक के खलनायक ही नहीं नालायक में भी तब्दील कर दिया जाता है और फिर उसके बारे में वे लोग भी हर तरह की कहानियां गढ़ने लगते है, जिनसे उसका कभी वास्ता नहीं रहा होता। हालांकि, यहां कोई एक व्यक्ति विशेष मूल विषय नहीं है। मूल विषय है मीडिया में मनमानी करने की वजह से अपने रोजगार प्रदाता संस्थानों से खदेड़ दिए गए पत्रकारों के अंत:करण में हर घटना के पीछे अपनी दमित कल्पनाओं को आकार देने वाली वह भावना, जिसकी वजह से देश के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति भी दुर्भाग्य के दौर में एक शर्मनाक धारावाहिक के खलनायक सा बना दिया जाता है। गलतियां हर किसी से संभव है। क्योंकि हाड़ मांस से निर्मित मनुष्य सिर्फ गुणों की खान नहीं होता। इसीलिए जीवन के किसी कर्म में यदि कोई मनुष्य न्यायोचित रूप से निरासक्त नहीं रह पाया तो उसे दंड देने के लिए इस देश में न्याय व्यवस्था जिंदा है। लेकिन विकृत आनंद लेने वालों को यह क्यों समझ में नही आता कि इस देश में न्याय की अदालत के निर्णयों से पहले ही वे अचानक फैसले घोषित करनेवाले कौन होते हैं?
माना कि मनुष्य की महानता का पैमाना उसकी क्षमाशीलता और सहिष्णुता में नीहित है। फिर व्यक्ति अगर देश के किसी सम्मानित पद पर आसीन है, तो उसकी सहनशीलता कुछ ज्यादा ही होनी भी चाहिए, जो कि दिख भी रही है। फिर भी सवाल यह भी तो है कि कोई भी व्यक्ति अंततः अपने पर कितनी और किस प्रकार की टिप्पणियों को किस सीमा तक सहता से स्वीकार करे, इसकी लक्षमण रेखा का निर्धारण आखिर कौन करेगा। माना कि हम आजाद देश है और इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खूब है। लेकिन आजादी का अर्थ सिर्फ हर रोज हर बात के लिए जब किसी एक व्यक्ति को ही केवल गाली देने में ही नीहित हो जाए, तो अभिव्यक्ति और उसकी आजादी, दोनों की पुनर्व्याख्या नए सिरे से की ही जानी चाहिए।
हम जानते हैं कि हर शब्द की और हर कर्म की अपनी सीमा होती है और इस सीमा को तोड़ने वालों का अपराध और उसका दंड भी हमारे देश में तय है। किंतु सवाल यह भी तो है कि कुछ लोग अगर अपनी औकात भूलकर सिर्फ एक पतित एजेंडा के तहत सीधे प्रधानमंत्री पर ही शर्मनाक टिप्पणियां करने की कुख्याति में ही जीवन की सफलता की लालसा पाल चुके हों, तो भी उन्हें अपने असफल जीवन की अनुभूतियों का आनंद लेने के लिए क्यों स्वतंत्र कर देना चाहिए। लेकिन विडंबना यह भी तो है कि हमारे लोकतंत्र में न्याय की देवी भी तो आंखों पर पट्टी बाधे खड़ी है न… !
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)