Rahul Gandhi: राहुल गांधी के पुराने साथी युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय रहे अध्यक्ष अशोक तंवर हालांकि कांग्रेस छोड़कर पहले ही निकल लिए थे, और एक दिन पहले वे बीजेपी में पहुंचे हैं। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी के नेता के तौर पर राहुल गांधी को विदेशी विश्वविद्यालयों में लेक्चर के लिए कई बार साथ ले जाने वाले कांग्रेस के पूर्व सांसद और राहुल के करीबी दोस्त मिलिंद देवड़ा भी राहुल का साथ छोड़ कर निकल गए। देवड़ा उसी दिन कांग्रेस से अपना 55 साल पुराना पारिवारिक नाता तोड़कर चले गये, जिस दिन राहुल गांधी असल में 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रचार का शंखनाद कर रहे थे, मणिपुर से भारत जोड़ो न्याय यात्रा की शुरुआत कर रहे थे। राहुल और मिलिंद की दोस्ती केवल इस बात से समझी जा सकती है कि अपनी मुंबई यात्रा के दौरान राहुल अक्सर मिलिंद के घर ही उनके साथ रुकते रहे हैं, मुंबई का नजारा देखने कई बार नाइट आउट जैसी ड्राइव भी कर चुके हैं। मिलिंद राहुल के साथी साथ थे और साथ रहना चाहते थे, मगर फिर भी निकल लिए।
राहुल का फायदा लेने के बावजूद मिलिंद का छोड़ जाना
मिलिंद तो पहले ही कांग्रेस छोड़ रहे थे लेकिन रणनीतिकारों ने तय किया कि कांग्रेस को ये झटका उस समय दिया जाये जब राहुल की यात्रा की शुरुआत हो रही हो। ताकि मीडिया को भी कांग्रेस की आलोचना करने का मौका मिल जाये। मिलिंद भी इसके लिए तैयार हो गये और जाते जाते कह भी गये कि कांग्रेस में अब उनकी कोई नहीं सुनता। हालांकि ये सवाल जरुर पूछा जाना चाहिये कि सन 2004 में पहली बार सांसद और उसके बाद 2009 से मंत्री बनने वाले मिलिंद ने राहुल गांधी के साथ ही संसदीय सफर शुरु किया था और राहुल के करीबी होने का खूब फायदा भी उठाया था। किसको इतनी कम उम्र में सांसद होने का फायदा मिलता है और मंत्रालय भी मिला। पिता मुरली देवड़ा तो खैर नगरसेवक से सांसद और मंत्री तक पहुंचे, लेकिन मिलिंद को तो उनके पिता के नाम के कारण ही सब कुछ मिला। इधर, जब 2014 और 2019 की लगातार दो हार के बाद से ही मिलिंद के सुर बदल गये। वो दिल्ली से दूर हो गये और राहुल के साथ भी उनके विदेश दौरे कम हो गये। हालांकि मिलिंद को प्रोफेशनल कांग्रेस का सह प्रमुख बनाया गया था, शशि थरुर के साथ। लेकिन मिलिंद इससे खुश नहीं थे। महीने भर पहले ही उनको कांग्रेस का सह कोषाध्यक्ष बनाया गया था, उसके बाद मिलिंद ने नागपुर में नेताओं से बात करने की कोशिश की। लेकिन बहुत भाव नहीं मिला, तभी 28 दिसंबर को मिलिंद ने तय कर लिया था कि अब यहां नहीं रहना। अब वो एकनाथ शिंद के साथ चले गये हैं। मिलिंद को इसके पहले 2014 में ही अरुण जेटली ने बीजेपी आने का न्यौता दिया था लेकिन राहुल की दोस्ती के चलते नहीं गये, लेकिन उस वक्त चले जाते तो बेहतर होता। आज वे बीजेपी में बहुत कुछ बन गए होते, और नहीं भी, तो बीजेपी के पुराने नेता तो बन ही जाते।
आखिर राहुल को छोड़कर उनके लोग जाते क्यों है?
अब सवाल यही उठता है कि ऐसा क्या होता है कि राहुल गांधी के ही सारे करीबी और दोस्त एक एक करके उनको छोड़ जाते है। क्या राहुल को दोस्तों की सही पहचान नहीं है या फिर राहुल तो सही है, उनके दोस्त ही कुछ ज्यादा उम्मीद कर लेते हैं। चाहे ज्योतिरादित्य सिंधिया हो या जितिन प्रसाद या फिर आर पीएन सिंह या अब मिलिंद देवड़ा, सब तो राहुल के खास रहे हैं। एक और मित्र रणनीतिकार प्रशांत किशोर को भी राहुल ने खूब सिर चढाया था वो भी छोड़ गये। लोग कहते हैं कि राहुल जब किसी पर भरोसा करते हैं तो पूरा करते हैं। लेकिन जब उनको लगता कि उनके इसी भरोसे पर कोई फायदा उठा रहा है या उनके नाम का दुरुपयोग कर रहा है तो वो उसे कब छोड़ देते हैं, ये पता ही नहीं चल पाता। एक वाकया मेरे सामने हुआ 2019 के चुनाव के पहले महाराष्ट्र के बड़े नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल, जो उस समय विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी थे, वो सीट बंटवारे से पहले दिल्ली गये थे। उनको अशोक चव्हाण खुद लेकर राहुल गांधी के पास गये। उस समय विखे पाटिल अपने बेटे सुजय विखे पाटिल के लिए अहमदनगर की लोकसभा सीट चाह रहे थे, जबकि एनसीपी नेता शरद पवार अपनी व्यक्तिगत खुन्नस के चलते ये सीट नहीं छोड़ रहे थे। विखे पाटिल परिवार ने शरद पवार को एक कानूनी मामले में फँसाया था और उसके चलते शरद पवार का राजनीतिक कैरियर तक दांव पर लग गया था। विखे पाटिल राहुल के सामने पहुंचे तो राहुल ने उनकी बात को बीच में ही काटते हुए कह दिया कि शरद पवार की बात तो माननी ही होगी। अगर आप अपने बेटे को लोकसभा टिकट दिलाना चाहते हैं तो एनसीपी से मैं बात कर सकता हूं। विखे पाटिल ने कहा कि उनके परिवार की राजनीति शरद पवार विरोधी है, कैसे वो चले जायें, तो राहुल ने कि फिर आप तय कर लें। विखे पाटिल भरे मन से बाहर आये अगले ही दिन बीजेपी चले गये।
राहुल सब कुछ स्पष्ट चाहते हैं, मगर राजनीति में ऐसा नहीं होता
राहुल गांधी से उनके गोरखपुर दौरे में भी मैंने उनसे 2012 में यही सवाल पूछा था, तो उन्होनें कहा था कि मुझे सिर्फ ब्लैक एंड वाइट ही नजर आता है, ग्रे नहीं। जबकि भारत की राजनीति में तो सब ग्रे ही ग्रे हैं, ब्लैक एंड वाइट यानी साफ साफ तो कुछ भी नहीं। यही राहुल की मुश्किल भी है। विदेशों में पढ़ाई और कुछ वक्त की फाइनेंस सेक्टर में नौकरी का उन पर खूब असर हुआ। वो सब कुछ साफ साफ देखना चाहते हैं और वो भरोसा जल्दी करते हैं और छोड़ते भी जल्दी से ही है। ये भारतीय राजनीति में बहुत कठिन हैं। यही सब उनके पिता राजीव गांधी के साथ भी होता था। उनके कई मित्र साथ रहे और कठिन समय में छोड़ते चले गये। लेकिन सोनिया गांधी ने ये सीख लिया था, इसलिए उन्होने ये गलती नही की। कांग्रेस में अपने कट्टर विरोधी और साफगोई वाले लोगों को भी साधती रही, मनाती रही, पद देती रही और यहां तक कि बिना मन के भी गुलाम नबी आजाद जैसों को बहुत ऊंचे पद तक ले गयी। लेकिन राहुल नाराज हुये तो सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया। एक और वाकया है कांग्रेस का, दिल्ली के बुराड़ी में अधिवेशन चल रहा था। तब अहमद पटेल सोनिया गांधी के सलाहकार थे, वो मंच पर नहीं सामने आकर सोफे पर बैठ गये। तब राहुल की उनसे खटपट चल रही थी। सोनिया गांधी ने ये देखा तो राहुल को इशारा किया और राहुल से खुद जाने कहा। राहुल खुद जाकर हाथ पकड़कर अहमद पटेल को मंच पर लाये और पहली पंक्ति में बिठा दिया। ये तहजीब सोनिया गांधी को हमेशा सबसे ऊपर रखती रही। राहुल को अभी ये सब सीखने और खुद में बदलाव लाने की जरुरुत है। लेकिन कहते हैं कि स्वभाव नहीं बदलता, तो राहुल स्वभाव कैसे बदल सकते है।
राहुल सुनते नहीं, जिसकी सुनते हैं वो किसी और की नहीं सुनता
अब भी कांग्रेस में राहुल के करीबी ही कई बार दखलंदाजी करते हैं। अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को न चाहते हुए भी कई बार केसी वेणुगोपाल और राहुल के बाकी करीबियों की सुननी पड़ती है। खरगे अब भी कई जगह मन से फैसले नहीं ले पाते और राहुल के करीबी उनसे गलत फैसले तक करा ले जाते हैं। इसका असर महाराष्ट्र में तो खास तौर पर देखने मिलता है। जाहिर है लंबे समय तक पार्टी में ये सब अच्छा नहीं है। महाराष्ट्र में तो आने वाले समय में कम से कम 14 विधायक और कुछ बड़े नेता भी इसीलिए पलायन कर सकते हैं, क्योंकि राहुल उनकी सुनते नहीं और जिसकी सुनते हैं वो किसी और की नहीं सुनता। जाहिर है राहुल को तो पहले दोस्त सही चुनने होंगे और उन दोस्तों को पहले से ही सिर पर चढ़ाना बंद करना होगा। फिर भी अगर कुछ गलत भी हो तो बिना पता लगे साइडलाइन करना होगा, ताकि पार्टी का नुकसान ना हो वरना ये दोस्तों के दोस्त ना रहने का सिलसिला यूं ही चलता रहेगा।