निरंजन परिहार
रवींद्र जैन अब इस लोक में नहीं है, लेकिन वे संगीत के सुरों में हैं, सबकी सांसों में हैं और हमारे होठों पर हैं। अपनी रची अनगिनत कर्णप्रिय, लोकप्रिय और सर्वप्रिय धुनों के साथ हम सबको भी इस जहां में छोड़कर सदा के लिए चले गए। अब वे वैसे तो हमें कभी नहीं मिलेंगे, जैसे अब तक मिला करते थे। लेकिन जब कोई किसी को सपनों के गांव में ले जाकर प्यार की छांव में बिठाएगा, तो वे हमें वहीं कहीं जरूर मिलेंगे। कौन दिसा में कोई बटोहिया किसी को लेकर कहीं जा रहा होगा, तो उस दिसा में वे जरूर मिलेंगे। कहीं कोई इस पग या उस पग में घुंघरू बजेगा, तब उसकी आवाज में जरूर मिलेंगे। कोई सजनी जब सजना के लिए अपनी उलझी लटें संवार रही होगी, तब वे उसे मिलेंगे। कोई जब अखियों के झरोखों से सांवरे को देखेगा, तो वे मिलेगें। पर वैसे नहीं मिलेंगे। क्योंकि वे सदा के लिए चले गए। जाना सबको है। आपको भी और हमको भी। पर, रवींद्र जैन को यूं अचानक नहीं जाना चाहिए था। वे जिस तरह गए, उस तरह क्या अचानक कोई जाता है। बीमार तो हर कोई होता है। वे भी थोड़े से बीमार थे। फिर भी लगातार काम करते रहने की आदत से मजबूर रविंद्र जैन नागपुर में कार्यक्रम करने गए थे। वहीं बीमार हो गए। तो, एयर एंबुलेंस से मुंबई लाए गए। यहां आकर अस्पताल में बिस्तर पर सोए थे। और सोते सोते ही सदा के लिए सो गए। अब आपको और हम सबको वे सिर्फ अपने मधुर गीतों की धुन में, शानदार शब्दों के संयोजन के संसार में और ऊंची उड़ान भरती उन्मुक्त आवाज की तान में मिलेंगे, और रह रह कर याद आते रहेंगे।
संगीत के संसार और संबंधों के सागर में दुनिया उन्हें अकसर दादा कहकर मान देती थी। वे अगर गीत गाते – गाते जाते, कोई धुन बनाते हुए जाते… या फिर जिंदगी के जटिल जज्बातों को शब्दों से संवारते हुए जाते तो, शायद ज्यादा ठीक लगता। लेकिन मौत तो मौत होती है। वह जब आ ही जाती है, तो कभी भी, कैसे भी, कहीं से भी किसी को भी अपने साथ उठाकर चली ही जाती है। दादा को भी अपने साथ ले गई। लेकिन हम सबको बहुत दुखी कर गई। दुखी इसलिए, क्योंकि रवींद्र जैन के संगीत और शब्दों में जिंदगी का जादू हुआ करता था। जिंदगी से किस तरह प्यार किया जाता है, यह हुआ करता था। प्यार की परवानगी हुआ करती थी। और पूरे परवान पर चढ़ी जिंदगी की वो जंग भी हुआ करती थी, जिसको जीत कर जिंदगी और बड़ी हो जाया करती थी। भरोसा नहीं हो, तो जरा गौर करके ‘राम तेरी गंगा मैली’ का गीत ‘हुस्न पहाड़ों का, ओ सायबा क्या कहना कि बारह महीने यहां मौसम जाड़ों का’ गीत पूरा सुन लीजिए, समझ में आ जाएगा कि शब्दों से खेलकर जिंदगी को महान कैसे साबित किया जा सकता हो। अपनी आंखों से उन्होंने दुनिया बहुत कम देखी, लेकिन आंखें न होने के बावजूद दुनिया की खूबसूरती को किसी भी और के मुकाबले कितना ज्यादा करीबी से देखा, यह इस गीत में बहुत साफ दिखता है।
अकसर माना जाता है कि जीते जी तो हम किसी की कद्र नहीं करते। लेकिन मौत के बाद दुनिया अकसर उनमें महानता की तलाश करने लगती है। लेकिन रवींद्र जैन तो हम सबके सामने जीते जी ही महान से भी ज्यादा बड़े हो गए थे। क्योंकि जिंदगी की असलियत को पूरी ईमानदारी के साथ गीतों में पेश करके दुनिया के दिलों से उन्होंने अपने मन का रिश्ता जोड़ा। वे जितने बड़े गायक थे, उससे भी बड़े गीतकार थे। और उससे भी ज्यादा बड़े संगीतकार। इतने बड़े कि उनके जीते जी तो उनकी बराबरी कोई नहीं कर सका। एक साथ तीनों विधाओं में पारंगत। हमारे सिनेमा के संसार में तो कम से कम रवींद्र जैन जितना बड़ा और कोई नहीं मिलता। लेकिन इस सबके साथ सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि रवींद्र जैन जितने बड़े संगीतकार थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे। उनको इंसानियत से मोहब्बत थी। और मोहब्बत को इंसानियत के नजरिए से देखना उनको किसी भी और इंसान से ज्यादा बेहतरीन तरीके से आता था। यही वजह थी कि रवींद्र जैन के गीत, संगीत में जिंदगी की तलाश नहीं करनी पड़ती थी। बल्कि जिंदगी खुद अपने को उनके संगीत से जोड़ती नजर आती थी। इसी कारण रवींद्र जैन के संगीत में सुरों की ऐसी अनुभूतियों के रंग दिखते रहे जो मन को झंकृत करके हमको अलौकिक अहसास की दुनिया में दूर कहीं ले जाते हैं।
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में सन 1944 में जन्मे रवींद्र जैन अपने सात भाई-बहनों में बिल्कुल बीच के थे। चौथे नंबर पर। अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने संगीत का मार्ग उन्होंने चुना। बचपन से ही उनकी आंखे बंद थी। लेकिन उन आंखों में रोशनी थी। छोटी सी उम्र में ऑपरेशन के जरिये आंखें खुली तो सही, लेकिन धीरे धीरे उनमें से रोशनी कम होती गई। आंखें, उस रोशनी को रोकने की जंग में हार गई, पर प्रतिभावान रवींद्र जैन रोशनी से नहीं हारे। और ‘दो जासूस’ , ‘सौदागर’, ‘पति पत्नी और वो’, ‘चितचोर’, ‘गीत गाता चल’, ‘दुल्हन वही जो पिया मन भाए’, ‘अखियों के झरोखों से’, ‘नदिया के पार’, ‘राम तेरी गंगा मैली’’, ‘विवाह’, और ‘हीना’ जैसी करीब 70 से भी ज्यादा सफलतम फिल्मों में संगीत देकर जिंदगी को जीत लिया। मशहूर धारावाहिक ‘रामायण’ को अपनी आवाज और संगीत के जरिए रवींद्र जैन ने घर-घर में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने कई धार्मिक फिल्मों और टीवी सीरियलों में संगीत दिया था। वे फिल्मों के बीचों बीच जी कर भी निजी जिंदगी में भी थोड़ा सा भी फिल्मी नहीं हो पाए। पूरी जिंदगी सादगी से रहे और 9 अक्टूबर 2015 की शाम 4 बजकर 10 मिनट पर उन्होंने मुंबई के लीलावती अस्पताल में आखरी सांस लेकर हमारी सांसों के संगीत में वे सदा के लिए बस गए। अब फिल्म जगत को कोई दूसरा रवींद्र जैन नहीं मिलेगा। वैसे देखा जाए तो फिल्मों से भी ज्यादा बड़ा मायाजाल जिंदगी का है। हमारी जिंदगी में जब हमको सबसे ज्यादा जिसकी जरूरत होती है। जिंदगी अकसर हमको उसी से जुदा कर देती है। रवींद्र जैन के मामले में भी जिंदगी ने हमारे साथ कुछ कुछ ऐसा ही किया। इसलिए अब आपको, हमको और पूरी दुनिया को उनके बिना उनका संगीत सुनने की आदत डालनी होगी। लेकिन यह बहुत मुश्किल काम है। पर, जिंदगी मुश्किलों का ही नाम है, यह भी हमें दादा ने ही अपने गीत, संगीत और गायकी के जरिए सिखाया है। और यह भी सिखाया कि ऊम्र के आखरी पड़ाव पर भी सक्रिय कैसे रहा जाता है। जीते जी उनको एक बार अपन ने कहा था कि दादा आप तो दुनिया के लिए एक करिश्मा है, तो वे बुरा तो नहीं माने, पर लगा था कि उन्हें थोड़ा सुहाया नहीं। लेकिन अब, जब वे नहीं हैं, तो हम यह कह सकते हैं कि उनका जाना किसी करिश्मे का खत्म हो जाना है। उनके ही एक गीत के बोल में कहें, तो अब कई दिन तक हमें कोई सपनों में आवाज देगा, हर पल बुलाएगा… और निश्चित तौर पर वह रवींद्र जैन ही होंगे।